कल प्रदीप कृष्ण की दिल्ली के पेड़ों के बारे में लिखी नयी किताब के बारे में पढ़ कर बहुत खुशी हुई. समाचार में लिखा है कि इस किताब के लिए उन्होंने कई वर्ष तक शोध किया है और शाहजहान के ज़माने से ले कर अँग्रेजी जमाने तक की राजकीय पेड़ों को लगाने की नीतियाँ और उनके चाहे या अनचाहे असर का भी विषलेशण किया है.
शायद यह दिल्ली की सीमेंट और कोलतार के बीच में बड़े होने का परिणाम था पेड़ों की तरफ कभी कोई विषेश ध्यान नहीं दिया. हमारे अपने घर में तो बस एक कनेर का पेड़ था, जो पेड़ कम, झाड़ अधिक था पर पड़ोसी घर में जामुन और अमरुद के पेड़ थे. फ़िर भी आज जामुन और अमरूद के पेड़ नहीं पहचान सकता. कुछ गिने चुने पेड़ों की ही पहचान है जैसे, आम, पीपल, नीम, कीकर. फ़ूलों वाले पेड़ों में दिल्ली गुलमोहर और अमलतास के लिए प्रसिद्ध है. लेकिन अगर फ़ूल न हों तो मेरा ख्याल है कि मैं केवल गुलमोहर को पहचान सकता हूँ.
कई साल इटली में रहने बाद ही अचानक मेरी आँख खुली कि दुनिया में पेड़ भी होते हैं, व्यक्तियों जैसे, एक दूसरे से भिन्न, जीवित प्राणी. इसका सबसे बड़ा कारण हमारा कुत्ता ब्राँदो है जिसके साथ प्रतिदिन बाग में या शहर के बाहर खेतों के पास सैर करने जाने से पेड़ों से मेरा परिचय हुआ. आज इटली के पेड़ों के बारे में बहुत जानकारी है क्योंकि इस विषय पर बहुत सी किताबें पढ़ीं हैं और करीब से जा कर बहुत बार पेड़ों का अध्ययन किया है. तो अच्छा लगा कि किसी को दिल्ली के पेड़ों के बारे में शोध करने का विचार आया.
एक बार दिल्ली हवाई अड्डे पर प्रदीप कृष्ण से मिलने का मौका मिला था, पर तब उनकी तरफ देखा भी नहीं था. सारा ध्यान उनकी पत्नी, अरूंधती राय से बात करने में था और प्रदीप कृष्ण को नमस्ते भी नहीं की. बाद में इस बारे में सोचा तो अपने बरताव पर खेद हुआ. प्रसिद्ध पत्नियों के पतियों को शायद इसकी आदत हो जाती है और शायद प्रदीप कृष्ण जी को अपने आप में इतना आत्मविश्वास है कि उन्हें इस सब से कुछ फर्क नहीं पड़ता!
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दो दिन पहले ब्राँदो का ओपरेशन हुआ है. उसके गले में डाक्टर ने एक भोंपू जैसा कौलर लगा दिया है जिसे यहाँ एलिजाबेथ कौलर कहते हैं ताकि वह घाव को न चाट सके. कल शाम से वह इस कौलर से परेशान है, बार बार पीछे मुड़ कर घाव चाटने की कोशिश करता है और बदहवास सा एक जगह से दूसरी जगह घूम रहा है. उसके पीछे पीछे आधी रात तक मेरी पत्नी लगी रही, इस समय वह जा कर सोयी है और मेरी बारी है अपने लाडले ब्राँदों की देखभाल करने की.
इस बात से बेटे के बचपन के दिन याद आ गये. तब भी ऐसा ही होता था, रात रात भर जागना!
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आज दो तस्वीरें दिल्ली की कुतुब मीनार से.
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सुनील जी, क्या आपको बरगद के पेड़ की पहचान नहीं है? मैं तो सोचता था कि उसे पहचानना सबसे सरल है, और ठीक ऐसा ही मैं अशोक के पेड़ के बारे में भी कह सकता हूँ। यही दो पेड़ हैं जिन्हें आराम से पहचान सकता हूँ, अन्यथा पेड़ों के बारे में मेरी जानकारी भी सिफ़र ही है!! हांलाकि बचपन में घर के बाहर अमरूद का पेड़ था, परन्तु विश्वास नहीं है कि आज अमरूद के पेड़ को पहचान लूँगा!! :)
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