गुरुवार, सितंबर 14, 2006

रायमोन पनिक्कर का प्रेम संदेश

आज के युद्ध, बम और आतंकवाद के वातावरण में मेरे विचार में भारत के विचारक और दर्शनशास्त्री दुनिया को विभिन्न धर्मों के आपसी सम्मान और समन्वय से साथ रहने का संदेश दे सकते हैं. बहुत दुनिया देखी है पर भारत जैसा विभिन्न धर्मों के साथ रहने का तरीका किसी अन्य जगह मिलना कठिन है.

बचपन से ही देखा था कि अपना धर्म कुछ भी हो, अन्य धर्मों के पूजनीय स्थलों पर हाथ जोड़ने और प्रार्थना करने में कभी झिझक नहीं होती थी. गुरुद्वारा जाना हो या मस्जिद या बड़े दिन के अवसर पर गिरजाघर, कभी यह नहीं सोचा कि यह हमारा धर्म नहीं है तो कम पूजनीय है. ईद की सेंवियाँ हों या गुरुपर्व की कच्ची लस्सी या फ़िर क्रिसमस का प्लम केक, खाने में भी बिल्कुल नहीं रुके. इसका यह अर्थ नहीं था कि अपने धर्म में विश्वास कम हो जाता था पर दूसरे धर्मों का आदर करना भारत में अधिकतर लोगों के लिए स्वभाविक सी बात है जिसके लिए न सोचना पड़ता है, न किसी को समझाना पड़ता है कि क्यों सिख न होते हुए भी गुरुद्वारे में हाथ जोड़े या ईसाई न होते हुए गिरजाघर में हाथ जोड़े.

अन्य देशों में जहाँ एक ही धर्म के बहुत्व हो, इसको समझना आसान नहीं है. यहाँ जब अन्य धर्मों के सम्मान की बात होती है तो वह तार्किक दृष्टि की बात लगती है उसमें वह भारतीय आत्मीयता की समझ कि सब रास्ते एक ही ओर जाते हैं और सभी रास्ते पूजनीय हैं वाली बात नहीं दिखती.

इटली में जब केथोलिक तथा विभिन्न धर्मों के बीच में वार्तालाप या संचार की बात होती है तो कभी कभी लगता है कि अन्य धर्मों को कुछ श्रेणियों में बाँट दिया गया हो. बात अधिकतर एक ईश्वरवादी धर्मों यानि ज्यू और इस्लाम तक ही रुक जाती है शायद क्योकि ईसाई धर्म की जड़ें इन दोनो धर्मों से करीब से जुड़ी हैं. लगता है कि पूर्वी विश्व में जन्मे धर्म, हिदु, बुद्ध, जैन इत्यादि को इनसे नीचा देखा जा रहा हो, उनकी बात न की जाती है और उनसे क्या सीखा जा सकता है उस पर विमर्श नहीं होता.

इसीलिए जब सुना कि शाम को एक गिरजाघर में भारत से आये फादर रायमोन पनिक्कर बोलने वाले हैं तो उन्हे सुनने बहुत शौक से गया. वृद्ध पनिक्कर सादा कुर्ता और लुँगी पहने, कँधे पर झोला उठाये, गाँधीवादी हैं. बहुत सी भाषाएँ बोलते समझते हैं और हालाँकि भारत में उनका नाम कभी नहीं सुना, यहाँ इटली और स्पेन में उनका लिखी किताबें बहुत पढ़ी जाती हैं.

उनके भाषण का विषय था "श्रद्धा, धर्म और सभ्यता" और बहुत बढ़िया बोले. ईसाई धर्म की बात करते हुए उन्होने बाईबल के साथ साथ वेदों, गुरु ग्रँथसाहब, महात्मा बुद्ध और महावीर तथा महात्मा गाँधी के संदेशों की भी बात की. हाल लोगों से खचाखच्च भरा था और बार बार तालियों की गड़गड़ाहट गूँज जाती.

मुझे लगा कि यही योगदान है जो भारतीय विचारकों ने, चाहे वह विवेकानंद हो या कृष्णामूर्ती, अलग अलग स्वरों में दिया था और जिसे पनिक्कर जैसे महात्मा आज दे रहे हैं. भारत के कैथोलिक ईसाई समाज में इस तरह की बात करने वाले पनिक्कर अकेले नहीं है. रुढ़िवादी गिरजाघर इसे ईसाईयत से दूर जाना समझते हैं और पनिक्कर को भी पादरी से हटाने की बात की गयी थी पर उनको सुनने वालों की भीड़ को देख कर स्पष्ट था कि इस भारतीय सोच को समझने वाले लोग दुनिया में हैं.

आज की तस्वीरों में रायमोन पनिक्कर जी.






5 टिप्‍पणियां:

  1. ईसाइयत का इतिहास देखें तो स्पष्ट रूप से दो तरह के पादरी हुए हैं - एक वे जो रूढ़िवादी थे और जिनके कारण ईसाइयत और चर्च को लकीर का फ़क़ीर वाली पहचान बनी| किंतु पादरियों का एक दूसरा रूप भी सामने आया जो क्रांतिकारी विचारों और प्रगतिशीलता को गले लगाने के लिए तत्पर रहा|

    पानिक्कर जी शायद दूसरे समूह के नवीनतम पादरी हैं|

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  2. पानिक्करजी को लाख लाख साधुवाद, इन्होने भारतीय विचारों का प्रतिनिधित्व किया हैं.

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  3. Offtopic, but Congratulations on being chosen the Blog of the Day at http://blogstreet.com/. Your is probably the first and deserving Hindi blog to make it there.

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  4. दोनो बात पढ़ कर अच्छी लगीं - आपकी पोस्ट और देबाशीष जी की खबर

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  5. फ़ादर रायमोन पणिक्कर जी के बारे में जान कर बहुत अच्छा लगा और गोआ की पिलर सेमिनरी में आयोजित एक आवासिक सर्वधर्म सभा की वह सुबह याद आयी जहां प्रात:काल हमने पुणे से आए फ़ादर सुवास आनन्द के सितारवादन के साथ उनके साथ मिल कर 'तमसो मा ज्योतिर्गमय,असतो मा सद्गमय,मृत्योर्मा अमृतम गमय' का सामूहिक पाठ किया . रायमोन पणिक्कर जी के बारे में जानकारी देने के लिए , सुनील जी आपका आभारी हूं .

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"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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