शनिवार, अगस्त 22, 2009

चाँद और आहें

कुछ दिन पहले आयी एक फ़िल्म "शार्टकट" का एक गीत सुना तो बहुत अच्छा लगा.

"कल नौ बजे तुम चाँद देखना, मैं भी देखूँगा, और फ़िर दोनो की निगाहें चाँद पर मिल जायेंगी"

मन में तीस या चालिस साल पहले देखी फ़िल्म "शारदा" की याद आ गयी जिसमें कुछ इसी तरह का गीत था, "ऐ चाँद जहाँ वो जायें, तुम साथ चले जाना". जब हीरो राजकपूर कहीं पर चला जाता है और पीछे से उसकी पत्नी या प्रेयसी यह गीत गाती है. इस फ़िल्म की कहानी बहुत अज़ीब थी. राजकपूर जी प्यार करते हैं शारदा यानि मीना कुमारी से, वह कहीं जाते हैं तो पीछे से शारदा का विवाह उनके पिता से हो जाता है, और जब वह घर वापस आते हें तो पिता की नयी पत्नी को देख कर दंग रह जाते हैं. इस तरह भी हो सकता है, इस बात को माना जा सकता है, बिमल मित्र के उपन्यास "दायरे के बाहर" में भी यही होता है, लेकिन शारदा का यह कहना कि उनके पुराने प्रेमी अब उन्हें माँ कह कर पुकारें और माँ के रूप में सोचें, मुझे बहुत अजीब लगा था और बेचारे राज कपूर पर बहुत दया आयी थी. बिमल मित्र ने अपने नायक शेखर से इस तरह की बात नहीं की थी.

खैर शारदा की बात छोड़ें और "शार्टकट" के गीत की बात पर वापस लौट चलें. गीत सुन कर लगा कि वाह कितना रोमाँटिक गाना है, दूर से चाँद को देख कर एक दूसरे के लिए विरह में जलना. पुराने दिन याद आ गये. यही झँझट है हम प्रौढ़ों का, कुछ भी हो, बस पुरानी बातों को सोच कर भावुक हो जाते हैं.

फ़िर इंटरनेट पर यह गीत देखा तो सब रोमाँस छू मंतर की तरह गायब हो गया, वही स्कर्ट या बिकनी पहने, समुद्र किनारे नाचते इतराते अक्षय खन्ना और अमृता राव. यह बात नहीं कि समुद्र या अमृता सुंदर नहीं, पर इस गाने के बोलों के साथ ठीक नहीं बैठ रहे थे. लगा कि इस फ़िल्म के निर्देशक को इतने सुंदर गाने को इस तरह से बिगाड़ने की सजा दी जानी चाहिये. आप स्वयं इस वीडियो को देखिये और बताईये कि क्या मेरा दुखी होना सही है या नहीं?





शायद यह आशा करना कि आज के ज़माने में चाँद तारों की बातें की जायें, यह बात ही गलत है? दूर से चाँद को देख कर आहे भरने का गीत गाना, साठ सत्तर के दशक तक के वातावरण में तो फिट हो सकता है, आज के ज़माने में चाँद तारों के लिए किसके पास समय है? अगर प्रेमी युगल में से एक व्यक्ति विदेश गया है तो "नौ बजे चाँद देखना" गाने का क्या औचित्य होगा, क्योंकि जब लंदन में नौ बजे होंगे तब भटिंडा या मुंबई में रात को दो बजे होंगे, तो अलग अलग समय में चाँद देखने से निगाहें कैसे मिलेंगी? और आज के ज़माने में जब मोबाईल, फेसबुक, टिव्टर, ईमेल, चेटिंग आदि के होने से किसी से बिछड़ कर सचमुच का विरह महसूस करना नामुमकिन सा हो गया है, चाँद देखने की बात करना बेमतलब सा है. साथ ही, हमारी पुरानी यादों की भी घँटी बज जाती है. इन आधुनिक फ़िल्मवालों को कुछ ध्यान रखना चाहिये कि हम जैसे पके बालों वालों की भावनाओं को ठेस लग सकती है कि हमारी प्रिय रोमाँटिक सिचुएशन को इस तरह से बिगाड़ा जाया.

कुछ इसी तरह लगा था जब "लव आज कल" देखी जिसकी बहुत चर्चा हो रही है कि बहुत रोमाँटिक फ़िल्म है. वीर सिंह और हरलीन वाले भाग में तो मुझे रोमाँस दिखा था पर आधुनिक रिश्ते जिस तरह इस फ़िल्म में दिखाये गये हैं, जय और मीरा के बीच, उनमे रोमाँस कहाँ था, कुछ स्पष्ट समझ नहीं आया. लगा कि जय और मीरा का बस एक आधुनिक रिश्ता था, जिसमें साथ रहने का आनंद, साथ सोने का सुख तो था पर प्रेम नहीं दिखा.

प्रियतमा हमेशा के लिए जा रही है, पर हमें समझ न आये कि हमें उससे प्रेम है या नहीं, उसके बाद दो साल बीत जायें, हम कुछ प्रेम अन्य जगह बाँट कर, अचानक अपने सुविधापूर्ण जीवन और सहेलियों से, जिसमें कोई चुनौती नहीं दिखती, बोर या उदास हो जायें, और फ़िर कहें कि वैसे सचमुच में हम मीरा से ही प्यार करते थे, पर हमें पता नहीं था, कुछ बेतुका सा नहीं लगता? और मीरा, जो साल भर अपने साथ काम करने वाले के साथ रह चुकी हैं, दोनो साथ रहते थे तो सोते भी होंगे, उन्हें अचानक सुहागरात को याद आता है कि भाई हमारा सच्चा प्यार तो जय था? कुछ कन्फूसड लोगों वाली बात नहीं लगती, जिन्हें प्रेम क्या होता है यह सचमुच देखने का मौका ही नहीं मिला?

क्या यह केवल प्रेम की बदलती परिभाषा है, जीवन के व्यस्तता में मन की भावनाओं को न पहचान पाने की दुविधा है या कुछ और? या शायद, प्रेम के लिए, दूरी और विरह की आवश्यकता है, कोई रुकावट या दुख भी चाहिये बीच में जिसके बिना हम अपने प्रेम को पहचान नहीं पाते?

जुलाई की अमरीकी मासिक पत्रिका "द एटलाँटिक" (The Atlantic) में साँद्रा त्सिंग लोह (Sandra Tsing Loh) का लेख छपा था जिसमें उन्होंने अपने तलाक के बारे में लिखा था. उनका कहना है कि आज जब स्त्री पुरुष के सामाजिक रोल और अपेक्षाएँ बदल चुकी हैं, आज लोगों की औसत उम्र लम्बी हो गयी है, सौ वर्ष पहले की सोचें तो दुगनी हो गयी है, तो इस बदले हुए परिपेश में सोचना कि स्त्री और पुरुष वही पुराने तरीकों से साथ रहेंगे, प्रेम करेंगे, विवाह करेंगे, आदि यह ठीक नहीं.

तो क्यों बात करें वही पुराने प्रेम और विवाह की? क्यों बात करें चाँद तारों की? क्या इस नयी दुनिया को "प्रेम" शब्द के बदले में कोई नया शब्द नहीं खोजना चाहिये, जो आधुनिक जीवन की इस नयी भावना की सही परिभाषा दे सके?

10 टिप्‍पणियां:

  1. bilkul sahi kaha hai apane aaj ke taarik me prem keliye koee nayaa shad hi khojani padegi ........our gana ke picturization ke baare me jo aapaki ray hai wah bilkul sahi hai ........bahut badhiya lekh .....sundar

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  2. देखोजी प्रेम तो है और अपनी जगह है. समस्या फिल्म बनाने वालों की है जो समझ नहीं पा रहे कि प्रेम की भावना को आधुनिक कैसे दिखाएं, और इस चक्कर में बकवास परोस रहें है.

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  3. आपके चिट्ठे पर टिप्पणी करना मुश्किल होता है, मन मे इतना कुछ उमडता-घुमडता है कि कई पोस्ट्स बन जाएं! बस ये कहूंगा कि जैसा आपने लिखा वैसा सोचने और महसूस करने वाले मौन चाहे हों, अल्पसंख्यक अभी भी नहीं हैं.

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  4. शायद संयोग ही है कि मैं ने भी यह दोनों फिल्में हाल ही में देखीं। चाँद को दूर से देखने के विषय में भी कुछ इस तरह के ही विचार आए थे। अभी अभी लव आज कल दूसरी बार देखी (घर में किसी मेहमान का साथ देने के लिए दूसरी बार देखनी पड़ी) और कंप्यूटर खोलते ही ट्विट्टर से इस प्रविष्टि पर क्लिक किया।
    शार्टकट बहुत फालतू फिल्म थी, लव आज कल ठीक थी।
    एक और चाँद की थीम से जुड़ा गाना जो अच्छा लगता है -हम तो हैं परदेस में देस में निकला होगा चाँद

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  5. सुनील जी
    आखिर मेरा इन्तिज़ार ख़तम हुआ और आपकी दोनों पोस्ट पढी दिल को छू गयी चाँद ने फिल्मी गीतों में लम्बा सफ़र तय किया है आपने मुझे मेरे नए लेख के लिए विषय सूझा दिया
    नयी पोस्ट के इन्तिज़ार में

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  6. आज दिनांक 13 अक्‍टूबर 2009 के दैनिक जनसत्‍ता में संपादकीय पेज पर समांतर स्‍तंभ के अंतर्गत आपकी यह पोस्‍ट प्रकाशित हुई है, बधाई।
    avinashvachaspati@gmail.com पर आप ई मेल भेजेंगे तो मैं आपको आपकी पोस्‍ट का स्‍कैनबिम्‍ब भेज दूंगा।

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  7. आपसे बहुत कम असहमत होती हूँ किन्तु इस लेख से काफ़ी असहमत हूँ। कभी कपड़ों, आधुनिकता, प्यार ,त्याग आदि पर एक लेख लिखूंगी।
    घुघूती बासूती

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  8. इस टिप्पणी के माध्यम से आपको, सहर्ष यह सूचना दी जा रही है कि आपके ब्लॉग को प्रिंट मीडिया में स्थान दिया गया है।

    अधिक जानकारी के लिए आप इस लिंक पर जा सकते हैं।

    बधाई।

    बी एस पाबला

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  9. पाबला जी को इस जानकारी के लिए बहुत धन्यवाद. जनसत्ता अखबार में यह लेख छपा, यह सोच कर बहुत अच्छा लगा. मुझे मालूम नहीं था कि अखबार वाले इस तरह चिट्ठे भी छाप सकते हैं.

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  10. घुघूती बसूती जी, मुझसे कोई असहमत हो, यह मुझे बहुत अच्छा लगता है, तभी तो बहस करने का आनंद आता है! आप का लिखा कई बार मुझे बहुत अच्छा लगा है, लेकिन कभी विचार न मिले, यह तो बहुत बढ़िया बात है! :-)

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"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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