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गुरुवार, अप्रैल 06, 2023

उपन्यास और जीवन

कई बार जब जीवन का समय कम बचता है तो जिस बात को जीवन भर नहीं कह पाये थे, उसे कहने का साहस मिल जाता है। मेरे मन में भी बहुत सालों से कुछ कहानियाँ घूम रही थीं और अब जीवन के अंतिम चरण में आ कर उन्हें लिखने का मौका मिला है।

शनिवार पहली अप्रैल को इतालवी लेखिका आदा द'अदामो चली गयीं। कुछ माह पहले ही उनका पहला उपन्यास, “कोमे द'आरिया" (जैसे हवा) आया था और आते ही बहुत चर्चित हो गया था। कुछ सप्ताह में २०२२-२३ के सर्वश्रेष्ठ उपन्यास का इतालवी पुरस्कार स्त्रेगा घोषित किया जायेगा, उसके लिए चुनी गयी दस पुस्तकों में "कोमे द'आरिया" भी है।

पचपन वर्ष की आदा को कैंसर था और अपनी आत्मकथा पर आधारित उनके उपन्यास में उन्होंने उस कैंसर की बात और अपनी बेटी दारिया की बात की है। उनके उपन्यास के शीर्षक को "जैसे हवा" की जगह पर "जैसे दारिया" भी पढ़ सकते हैं।

दारिया को एक गम्भीर विकलाँगता है और रोज़मर्रा के जीवन के लिए उन्हें सहायता की आवश्यकता है। आदा की भी वही चिंता है जो उन हर माता-पिता की होती है जिनके बच्चों को गम्भीर विकलाँगता होती है और जिनमें मन में प्रश्न उठते हैं कि हमारे बाद हमारे बच्चे का क्या होगा।



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सारा जीवन यात्राओं में बीत गया। सन् २००१ में, जब कुछ महीनों के लिए जेनेवा में परिवार से दूर रह रहा था, तब पहली बार एक उपन्यास लिखने की कोशिश की थी। कुछ महीनों की कोशिश के बाद उसे छोड़ दिया।

दो दशकों से मेरे मन में तीन कहानियाँ घूम रही थीं, जिन्हें मैं अपने "अमर, अकबर, एन्थोनी" उपन्यास कहता था, क्योंकि मनमोहन देसाई की फ़िल्मों की तरह उन सब में खोयी माएँ, बिछड़े भाई और पिता थे। सोचता था कि यह तीनों उपन्यास मेरे साथ बिना लिखे ही रह जायेंगे। हर एक-दो साल में उनमें से किसी कथा के पात्र मेरी कल्पना में जीवित हो जाते थे तो उसे लिखने की इच्छा जागती थी, हर बार थोड़ा-बहुत बहुत लिखता और फ़िर अटक जाता।

दो साल पहले, कोविड की वजह से घर में बन्द थे और सब यात्राएँ रद्द हो गयीं थीं। कोविड से चार मित्रों की मृत्यु हुई और इसी समय में एक मित्र, जिसे कुछ वर्ष पहले यादाश्त खोने वाली बीमारी हो रही थी, उसकी पत्नी ने बताया कि वह अपने बेटे को नहीं पहचान पाता था। इन सब बातों का दिल और दिमाग को असर तो था ही, मुझे दिखने में कठिनाई होने लगी, उसके लिए मोतियाबिंद का आप्रेशन हुआ लेकिन पूरा ठीक नहीं हुआ, तो यह ड़र भी लगने लगा कि दृष्टि पूरी न चली जाये।

शायद इन सब बातों का मिल कर कुछ असर हुआ या फ़िर लगा कि अब सत्तर की उम्र के पास आ कर भी इस काम को नहीं किया तो यह नहीं होगा। जो भी था, एक उपन्यास को २०२१ में लिखना शुरु किया और उसे पूरा करके ही रुका। इसमें एक बेटे की अपनी खोयी हुई माँ और भाई को खोजने की कहानी है।

उसे कुछ लोगों को पढ़वाया, अधिकतर सकरात्मक टिप्पणियाँ ही मिलीं, पर यह भी सोचा कि परिवार या मेरी जान पहचान के लोग नकारात्मक बात नहीं कहेंगे। खैर जितने सुझाव मिले, उनमें से कुछ ठीक लगे तो उपन्यास को दोबारा, तिबारा लिखने में उन्हें लागू किया। अब वह लगभग पूरा हो चुका है, मेरी रिनी दीदी उसे वर्तनी की गलतियों के लिए जाँच रहीं हैं, फ़िर उसके लिए प्रकाशक खोजने का काम होगा।

अगर आप में से कोई अनुभवी जन मेरे उपन्यास के प्रकाशन के बारे में मुझे कुछ सलाह और सुझाव दे सकते हैं तो आप को पहले से धन्यवाद।

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इटली के हमारे छोटे से शहर में हमारा एक किताबें पढ़ने वाला का ग्रुप है। हम सब लोग महीने में एक बार मिलते हैं और किसी एक किताब की चर्चा करते हैं, और अगली किताब कौन सी पढ़ी जाये का निर्णय लेते हैं। मुझे पाँच वर्ष हो गये इस ग्रुप का सदस्य बने हुए। इसमें भाग लेने से मुझे यह समझ में आया है कि ऐसी किताबें तो कम ही होती हैं जो सबको पसंद आयें। अक्सर ऐसा होता है कि कोई किताब किसी को बहुत पसंद आती है और किसी को बिल्कुल भी नहीं।

इसलिए सोचता हूँ कि मेरी किताब भी कोई न कोई पाठक होंगे। हो सकता है कि वह बहुत से लोगों को पसंद न आये। मेरे इतालवी ग्रुप के मित्रों को शिकायत है कि मैंने यह किताब हिंदी में क्यों लिखी। कुछ लोग मुझसे कहते हैं कि मुझे इसका तुरंत इतालवी में अनुवाद करना चाहिये।

मैं कहता हूँ कि अगर इसका अनुवाद होगा तो वह कोई और ही करेगा, वह मेरे बस की बात नहीं। यह भी लगता है कि न जाने लिखने के लिए मेरे पास कितने साल बचे हैं, मुझे अपने "अमर, अकबर, एन्थोनी" के दूसरे उपन्यास को लिखने के बारे में सॊचना चाहिये।

लगता है कि शब्दों की नदी मन के भीतर कहीं पर अटकी थी, अब बाँध तोड़ कर निकली है तो रुकती नहीं। कभी-कभी मन सपने बुनता है कि यह तीनों पूरे हो जायें तो एक उपन्यास साईन्स फ़िक्शन का भी लिखना है। फ़िर मन में आता है कि लम्बे कार्यक्रम बनाना ठीक नहीं। हर दिन जो लिखने का मिलता है, उसी के लिए खुश रहना चाहिये।

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लिखते समय जब भी कहानी किसी मोड़ पर अटक जाती थी तो अक्सर उसका उपाय शाम को सैर करते हुए सूझता था, या कभी-कभी, सुबह जागने पर।

शाम की सैर उपन्यास की परिस्थितियों और पात्रों के बारे में सोचने का सबसे अच्छा मौका है। इसके लिए घर से निकलता हूँ तो अक्सर पास वाली नदी वाला रास्ता लेता हूँ। पिछले साल की तरह, इस साल भी हमारी नदी सूखी है। सैर करते समय नदी के जल का कलरव, कभी पत्थरों और चट्टानों से टकराने का, कभी झरनों का, वह शोर मुझे सोचने में सहायता करता था।

लेकिन नदी सूखी होने से बहुत महीनों से चुप बैठी है। यह धरती, हमारा पर्यावरण, सब कुछ बदल रहा है। कुछ लोग कहते हैं कि आर्टिफीशियल इन्टैलिजैंस यानि कृत्रिम बुद्धिशक्ति के चैट-जीपीटी जैसे कार्यक्रम इंसानों से अच्छे उपन्यास लिखेंगे, फ़िर हमें इतनी मेहनत करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।

तो सोचता हूँ कि जाने कल की दुनिया कैसी होगी, होगी भी या नहीं होगी, तो लिखने, छपवाने, पढ़ाने का क्या फायदा? फ़िर सोचता हूँ, मेरी आत्म-अभिव्यक्ति का महसूस किया हुआ सुख, मेरे लिए यही काफ़ी है। असली चिंता तो आजकल के बच्चों को करनी पड़ेगी कि भविष्य में वह लोग क्या काम करेंगे?

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बुधवार, अप्रैल 27, 2022

बिमल मित्र - दायरे से बाहर

बहुत समय के बाद बिमल मित्र की कोई किताब पढ़ी। बचपन में उनके कई धारावाहिक उपन्यास पत्रिकाओं, विषेशकर साप्ताहिक हिंदुस्तान पत्रिका, में छपते थे, वे मुझे बहुत अच्छे लगते थे। फ़िर घर के करीब ही दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी से ले कर भी उनकी बहुत सी किताबें पढ़ीं थीं। उनकी पुस्तक "खरीदी कौड़ियों के मोल" मेरी सबसे प्रिय किताबों में से थी।

वह बँगला में लिखते थे, लेकिन हिंदी के साहित्य पढ़ने वालों में भी बहुत लोकप्रिय थे, इसलिए उनके सभी उपन्यास हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद किये जाते थे। बिमल मित्र का जन्म 18 मार्च 1912 को हुआ था। उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से एम.ए. की शिक्षा पायी और लगभग साठ  किताबें लिखीं। उनका देहांत 2 दिसम्बर 1991 को हुआ।

Bimal Mitra
बिमल मित्र की बहुत सी किताबों पर बँगाली में फ़िल्में बनी थीं जैसे कि उनकी एक किताब पर पहले १९५६ में सुमित्रा देवी और उत्तम कुमार की फ़िल्म थी "साहेब बीबी गोलाम", जिस पर कुछ वर्षों के बाद १९६२ में मीना कुमारी और गुरुदत्त की हिंदी फ़िल्म "साहब बीबी और गुलाम" भी बनी थी जिसे आज तक हिंदी की उच्च फ़िल्मों में गिना जाता है। उनकी किताबों पर बनी अन्य बँगाली फ़िल्मों में हैं - नीलाचले महाप्रभु (१९५७), बनारसी (१९६२) और स्त्री (१९७२)। उनकी पुस्तक "आसामी हाजिर" पर १९८८ में हिंदी धारावाहिक सीरियल "मुजरिम हाजिर" दूरदर्शन पर प्रसारित हुआ था जिसमें नूतन, उत्पल दत्त, रीता भादुड़ी और मोहन भँडारी जैसे जाने माने कलाकारों ने काम किया था।

पिछली बार दिल्ली गया था तो उनकी किताब "दायरे के बाहर" को दरियागँज के फुटपाथ से खरीदा था। ला कर अल्मारी में रख दिया था कि एक दिन पढ़ूँगा। कोविड महामारी की वजह से घर में बँद रहने के कारण बहुत सी पुरानी खरीदी किताबों को पढ़ने का मौका मिला तो उनमें "दायरे के बाहर" का नम्बर भी आ गया। यह उपन्यास दिल्ली के सन्मार्ग प्रकाशन द्वारा 1996 में छापा गया लेकिन उसमें यह नहीं लिखा कि उसका मूल बँगला नाम क्या था या वह पहली बार कब छपा और उसके कितने संस्करण छप चुके थे। पुस्तक का बँगला से हिंदी अनुवाद श्री हंसकुमार तिवारी ने किया था।

"दायरे के बाहर" का अनोखा प्रारम्भ

"दायरे के बाहर" कुछ अजीब तरह से शुरु होती है। वैसे तो यह बिमल मित्र के लिखने की शैली ही थी कि उनकी बहुत सी किताबों के शुरु में कुछ एक या दो पृष्ठ लम्बा दर्शनात्मक विवेचन होता था। पर "दायरे के बाहर" के प्रारम्भ में यह विवेचन बहुत लम्बा है। उसमें यह भी लिखा है कि यह उनका पहला उपन्यास था जो उन्होंने द्वितीय महायुद्ध के बाद के समय में लिखा था और तब इसका नाम था "राख"। फ़िर लिखा है कि पहली बार लिखा उपन्यास जिस बात पर समाप्त किया गया था, उसके बाद उनके पात्रों के जीवन कुछ अन्य बातें हुईं जिन्हें उन्होंने इस नये संस्करण में जोड़ दिया है। वह कहते हैं कि इसे पहले जब लिखा था तो वह नये लेखक थे और इसकी भाषा में भी कुछ कमियाँ थीं जिन्हें उन्होंने नये संस्करण में कुछ सीमा तक सुधारा था।

इस टिप्पणी से लगता है कि यह उपन्यास पूरी तरह से काल्पनिक नहीं था, बल्कि वह सचमुच के लोगों के जीवन पर आधारित था। इन सब बातों में कितना सच था, यह तो कोई उनके साहित्य को मुझसे बेहतर जानने वाला ही बता सकता है कि यह सचमुच की बात थी या फ़िर कहानी को नाटकीय बनाने का एक तरीका।

"दायरे से बाहर" का कथा सार

उपन्यास की नायिका हैं सुरुचि जोकि द्वितीय महायुद्ध के पहले के दिनों में कलकत्ता में अपने अध्यापक पिता सदानंद और माँ मृण्मयी के साथ रहती है। उनके घर में रहने एक युवक आता है जिसका नाम है शेखर और जिसे सदानंद के पुराने मित्र गौरदास ने भेजा है। शेखर और सुरुचि एक दूसरे को चाहने लगते हैं और सुरुचि गर्भवति हो जाती है। यह बात जान कर शेखर सुरुचि से कहता है कि वह उससे विवाह करेगा लेकिन एक दिन वह अचानक वहाँ से बिना कुछ कहे गुम हो जाता है। सुरुचि को ले कर उसकी माँ एक दूर गाँव में रिश्ते की एक बुआ के पास रहने चली जाती है, सबको कहा जाता है कि मृण्मयी गर्भवति है। उस समय द्वितीय महायुद्ध छिड़ चुका है और कलकत्ता में भी बम गिरने की आशंका है, इसलिए बहुत से लोग शहर में अपने घर छोड़ कर गाँव जा रहे है।

गाँव में सुरुचि के बेटा होता है और उसके थोड़े दिनों के बाद मृण्मयी का देहांत हो जाता है। सुरुचि अपने बेटे राहुल को अपना छोटा भाई कहने को मजबूर है, उसे ले कर वह शहर वापस लौट आती है, जहाँ सदानन्द को पक्षाघात हो जाता है। शहर में उसे नौकरी देते हैं एक प्रौढ़ विधुर उद्योगपति विलास चौधरी, जो नौकरी देने के साथ साथ उसके बीमार पिता की देखभाल का इन्तजाम भी करवाते हैं। जब वह सुरुचि से विवाह का प्रस्ताव रखते हैं तो एहसानों से दबी सुरुचि उन्हें न नहीं कह पाती। विवाह के बाद वह अपने पति की पहली संतान से मिलती है, जो कि जेल से छूटा शेखर है, तो हैरान हो जाती है लेकिन अब तो उनके रिश्ते को बहुत देर हो चुकी है। अपने पिता की नयी पत्नी को देख कर शेखर घर छोड़ कर दोबारा गुम हो जाता है।

साल बीत जाते हैं और विलास चौधरी का देहांत हो जाता है। तब सुरुचि की मुलाकात गौरदास से होती है जोकि अनाथ बच्चों के लिए आश्रम चला रहे हैं। विधवा सुरुचि जानती है कि शेखर गौरदास के लिए ही काम करता है, तो वह गौरदास पर दबाव डालती है कि शेखर को कलकत्ता बुलाया जाये ताकि वह उससे बात कर पाये।

कथानक से जुड़ी कुछ बातें

बिमल मित्र की अन्य किताबों की तरह यह भी बहुत दिलचस्प है, एक बार पढ़ना शुरु किया जो बीच में छोड़ी नहीं गयी। नायिका की दुविधा कि जिस पुरुष के बच्चे की माँ थी, वह उसे बेटा बुलाने को बाध्य है, में जो ड्रामा छुपा है उसे बिमल मित्र बहुत सुंदर तरीके से अभिव्यक्त करते हैं।

यह किताब पढ़ते हुए मेरे मन में दो फ़िल्मों की कहानियाँ याद आ रही थीं। एक तो जरासंध के १९५८ के बँगला उपन्यास "तामसी" पर बनी बिमल राय द्वारा निर्देशित फ़िल्म "बन्दिनी" (१९६३) थी। मैंने "तामसी" का हिंदी अनुवाद बचपन में पढ़ा था। जैसे "दायरे के बाहर" में गाँव से आया क्राँतीकारी शेखर मेहमान बन कर सदानंद के यहाँ आ कर रहता है और उसे उनकी बेटी सुरुचि से प्रेम हो जाता है, यही कहानी "बन्दिनी" की पृष्ठभूमि में भी थी जिसमें क्राँतीकारी शेखर (अशोक कुमार) को ब्रिटिश सरकार गाँव में गृहकैद के लिए एक गाँव में भेज देती है जहाँ उसे गाँव के पोस्टमास्टर बाबू की बेटी कल्याणी (नूतन) से प्रेम हो जाता है।

दूसरी फ़िल्म जिससे इस उपन्यास की कहानी मिलती थी वह थी १९५७ की एल वी प्रसाद द्वारा निर्देशित फ़िल्म "शारदा" जिसकी नायिका शारदा (मीना कुमारी) को एक नवयुवक शेखर (राज कपूर) से प्रेम है। विदेश गये शेखर की अनुपस्थिति में पिता की बीमारी का इलाज कराने के लिए शारदा को सेठ जी की सहायता लेनी पड़ती है और जब वह उसे विवाह के लिए कहते हैं तो एहसानों तले दबी शारदा न नहीं कह पाती। विवाह के बाद जब वह जान पाती है कि शेखर उन्हीं सेठ जी का बेटा है, तब तक बहुत देर हो चुकी है। "शारदा" १९५४ की तमिल फ़िल्म "एधीर पराधनु" पर बनी थी।

बिमल मित्र के उपन्यास का नायक शेखर, तामसी/बन्दिनी में भी था और शारदा में भी। चूँकि बिमल मित्र ने इस उपन्यास को द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद लिखा था, मुझे लगता है जरासंध की तामसी कहानी की समानता संयोगवश हो सकती है लेकिन शारदा की कहानी शायद "राख" से प्रेरित थी?  

"दायरे के बाहर" किताब पढ़ते समय स्पष्ट लगता है कि इसका अंतिम भाग बाद में लिखा गया था। जैसे कि किताब के पहले भाग में गौरदास और शेखर को क्राँतीकारी दिखाया गया है, वह हिंसा और बम की बात भी करते हैं, और सुभाषचँद्र बोस की आजाद हिंद फौज का हिस्सा बन कर अँग्रेजों से लड़ने की बात भी करते हैं। जबकि अंत के हिस्से में गौरदास अहिँसावादी बन जाते हैं, शेखर समाजसुधारक बन जाता है। शायद यह बदलाव लेखक के अपने विचार बदलने का सूचक था?

उपन्यास के अंतिम भाग में लेखक ने एक पात्र गौरदास के माध्यम से अपनी आध्यात्मिक सोच को भी अभिव्यक्त किया है। जैसे कि यह सुरुचि से बात करते हुए गौरदास कहते हैं (पृष्ठ २५२):

"पुरुष कहता है, कर्म जो पदार्थ है, वह स्थूल है, आत्मा के लिए बँधन है। लेकिन आदमी में जो नारी है, वह कहती है काम चाहिये, और काम चाहिये। इसलिए कि काम में ही आत्मा की मुक्ति है. वैराग्य भी मुक्ति नहीं है, अंधकार भी मुक्ति नहीं है, आलस्य भी मुक्ति नहीं है। ये सब भयंकर बंधन हैं। इन बंधनों को काटने का एक ही हथियार है, वह है कर्म। कर्म ही आत्मा को मुक्ति देता है और यह संसार ही कर्म का स्थल है. संसार को छोड़ने से तुम्हारा कैसे चल सकता है बिटिया! यदि मुक्ति चाहती हो तो तुम्हें इस संसार में ही रहना होगा।"

इस तरह से सुरुचि और शेखर की कहानी के साथ साथ, इस पुस्तक में बिमल मित्र ने अपने जीवन तथा धार्मिक दर्शन को बहुत गहराई के साथ अभिव्यक्त किया है। यह दर्शन वाले हिस्से भी मेरे विचार में उन्होंने बाद में जोड़े थे, जो शायद उनकी बढ़ती आयु के साथ जुड़ी समझ का नतीजा थे।

सोमवार, मार्च 04, 2013

हिन्दी में समलैंगिकता विषय पर लेखन


प्रोफेसर अलेसाँद्रा कोनसोलारो उत्तरी इटली में तोरीनो (Turin) शहर में विश्वविद्यालय स्तर पर हिन्दी की प्रोफेसर हैं. उन्होंने बात उठायी मेरे एक 2007 में लिखे आलेख की जिसमें मैंने हिन्दी पत्रिका हँस में तीन हिस्सों में छपी हिन्दी के जाने माने लेखक पँकज बिष्ट की कहानी "पँखोंवाली नाव" की बात की थी. अलेसाँद्रा ने मुझसे पूछा कि क्या यह कहानी कहीं से मिल सकती है? इस कहानी में दो मित्र थे, जिनमें से एक समलैंगिक था. मैंने अपने आलेख में एक ओर तो बिष्ट जी द्वारा समलैंगिकता के विषय को छूने का साहस करने की सराहना की थी, वहीं मुझे यह भी लगा था कि इस कहानी में समलैंगिकता को "बाहर" या "विषमलैंगिक" दृष्टि से देखा सुनाया गया है, उसमें कथा के समलैंगिक पात्र के प्रति आत्मीयता कम है.

जहाँ तक मुझे मालूम है, बीच में कुछ समय तक हँस में छपी सामग्री इंटरनेट पर भी मिल जाती थी, लेकिन बहुत समय यह बन्द है. मेरे पास 2007 के हँस के कुछ अंक हैं लेकिन यह कहानी पूरी नहीं है, उसका बीच का भाग जो सितम्बर 2007 के हँस में छपा था, वह नहीं है. क्या आप में कोई सहायता कर सकता है या कोई तरीका है सितम्बर 2007 अंक से इस कहानी को पाने का? अगर किसी के पास हँस का वह अंक हो तो उसे स्कैन करके मुझे भेज सकता है.

अलेसाँद्रा के कुछ अन्य प्रश्न भी थे - हिन्दी में समलैंगिकता-अंतरलैंगिकता के विषय पर कौन सी महत्वपूर्ण कहानियाँ और उपन्यास हैं? हिन्दी में समलैंगिक या अंतरलैंगिक लेखक या लेखिकाएँ हैं? अगर हाँ तो वह इस विषय पर क्या लिख रहे हैं?

अलेसाँद्रा के इन प्रश्नों का मेरे पास कोई उत्तर नहीं. इंटरनेट पर खोजने से कुछ नहीं मिला. क्या आप में कोई इस विषय में हमारी सहायता कर सकता है यह जानकारी एकत्रित करने के लिए कि इस विषय पर किस तरह का लेखन हिन्दी में है और हो सके तो उनके लेखकों से सम्पर्क कराने के लिए?

Queer writing - graphic by S. Deepak, 2013

पिछले दशकों में लेखन और साहित्य विधाओं में सच्चेपन (authenticity) और "जिसकी आपबीती हो वही अपने बारे में लिखे" की बातें उठी हैं. इस तरह से साहित्य में नारी लेखन, शोषित जनजातियों के लोगों के लेखन, दलित समाज के लोगों के लेखन, जैसी विधाएँ बन कर मज़बूत हुई हैं. इन्हीं दबे और हाशिये से बाहर किये गये जन समूहों में समलैंगिक तथा अंतरलैंगिक व्यक्ति समूह भी हैं, जिनके लेखन की अलग साहित्यिक विधा बनी गयी है जिसे अंग्रेज़ी में क्वीयर लेखन (Queer writings) कहते हैं. शब्दकोश के अनुसार "क्वीयर" का अर्थ है विचित्र, अनोखा, सनकी या भिन्न. यानि अगर बात लोगों के बारे में हो रहे हो तो इसका अर्थ हुआ आम लोगों से भिन्न. लेकिन अँग्रेज़ी में "क्वीयर" का आधुनिक उपयोग "यौनिक भिन्नता" की दृष्टि से किया जाता है. तो इस तरह के लेखन को बजाय "समलैंगिक-अंतरलैंगिक लेखन" कहने के बजाय हम "यौनिक भिन्न लेखन" भी कह सकते हैं. पश्चिमी देशों में विश्वविद्यालय स्तर पर जहाँ साहित्य की पढ़ायी होती है, तो उसमें साहित्य के साथ साथ, नारी लेखन, जनजाति लेखन, यौनिक भिन्न लेखन, विकलाँग लेखन, जैसे विषयों की पढ़ायी भी होती है.

नारी लेखन, दलित या जन जाति लेखन जैसे विषयों पर मैंने हँस जैसी पत्रिकाओं में या कुछ गिने चुने ब्लाग में पढ़ा है. लेकिन हिन्दी में विकलाँगता लेखन या समलैंगिक लेखन, इसके बारे में नहीं पढ़ा.

बहुत से लोग, लेखकों और लेखन को इस तरह हिस्सों में बाँटने से सहमत नहीं हैं. उनका कहना है कि लेखन केवल आपबीती नहीं होता, कल्पना भी होती है. अगर हम यह कहने लगें कि लेखक केवल अपनी आपबीती पर ही लिखे तो दुनिया के सभी प्रसिद्ध लेखकों का लिखना बन्द जाये. खुले समाज में जहाँ जन समान्य निर्धारित करे कि जो आप ने लिखा है वह पढ़ने लायक है या नहीं, उसे लोग खरीद कर पढ़ना चाहते हें या नहीं, यही लेखन की सार्थकता की सच्ची कसौटी है.

दूसरी ओर यह भी सच है कि समाज के हाशिये से बाहर किये और शोषित लोगों की आवाज़ों को शुरु से ही इतना दबाया जाता है कि वह आवाज़ें मन में ही घुट कर रह जाती हैं, कभी निकलती भी हैं तो इतनी हल्की कि कोई नहीं सुनता. आधा सच जैसे प्रयास भी अक्सर हर ओर से चारदीवारियों में घेर कर बाँध दिये जाते हैं जिन पर उन चारदीवारों से बाहर चर्चा न के बराबर होती है. इस स्थिति में यौनिक भिन्न लेखन की बात करके उन आवाज़ों को पनपने और बढ़ने का मौका देना आवश्यक है. जब उन आवाज़ों में आत्मविश्वास आ जाता है तो वह खुले समाज में अन्य लेखकों की तरह सबसे खुला मुकाबला कर सकती हैं.

रुथ वनिता तथा सलीम किदवाई द्वारा सम्पादित अँग्रेज़ी पुस्तक "भारत में समलैंगिक प्रेम - एक साहित्यिक इतिहास" ("Same sex love in India - a literary history" edited by Ruth Vanita and Saleem Kidwai, Penguin India, 2008) कुछ आधुनिक लेखकों की रचनाओं की बात करती है.

रुथ से मैंने पूछा कि अगर कोई लेखक जो स्वयं को समलैंगिक/द्विलैंगिक/अंतरलैंगिक न घोषित करते हुए भी यौनिक भिन्नता के बारे में लिखें तो क्या उसे "यौनिक भिन्न साहित्य" माना जायेगा?

तो रुथ ने कहा कि "यह इस बात पर भी निर्भर करेगा कि आप "क्वीयर" को किस तरह परिभाषित करते हैं? मेरे विचार में इस विषय पर कोई भी लिखे, चाहे वह स्वयं को यौनिक रूप से भिन्न परिभाषित करे या न करे, वह स्वीकृत होगा. किसकी यौनता क्या है, यह हम कैसे जान सकते हैं? इस विषय पर बहुत से हिन्दी लेखकों ने लिखा है जैसे कि राजेन्द्र यादव,निराला, उग्र तथा विषेशकर, विजयदान देथा जिन्होंने राजस्थानी में लिखा, उस सब को "समलैंगिक साहित्य" कह सकते हैं. चुगताई का लिखा जैसे कि "तेरही लकीर" के हिस्से और "लिहाफ़" भी इसी श्रेणी में आता है, हालाँकि यह उर्दू में लिखे गये. हरिवँश राय बच्चन की आत्मकथा, "क्या भूलूँ क्या याद करूँ" में वह भाग है जिसके बारे में नामवर सिंह ने कहा था कि वह एक पुरुष का दूसरे पुरुष के लिए प्रेम की स्पष्ट घोषणा थी."

यह जान कर अच्छा लगा कि हिन्दी-उर्दू जगत में जाने माने लेखकों ने इस विषय को छूने का साहस किया है, आज से नहीं, बल्कि कई दशकों से यह हो रहा है. लेकिन मैंने सोचा कि रूथ के दिये सभी उदाहरण कम से कम 1960-70 के दशक से पहले के हैं. जबकि मुझे अपने प्रश्न का उत्तर नहीं मिला कि, पिछले तीस चालिस सालों में यौनिक भिन्नता की दृष्टि से, पँकज बिष्ट की हँस में छपी कहानी "पँखवाली नाव" के अतिरिक्त क्या कुछ अन्य लिखा गया?

इस बहस में एक अन्य दिक्कत है जो कि साँस्कृतिक है और मूल सोच के अन्तरों से जुड़ी हुई है. पश्चिमी विचारक, कोई भी विषय हो, चाहे विज्ञान या दर्शन, वनस्पति या मानव यौन पहचान, वे हमेशा हर वस्तु, हर सोच को श्रेणियों में बाँटते हैं. जबकि भारतीय परम्परा के विचारक में हर वस्तु, हर सोच में समन्वय की दृष्टि देखते हैं. इस तरह से बहुत से यौनिक मानव व्यवहार हैं जिन्हें भारतीय समाज ने समलैंगिक-अंतरलैंगिक-द्वीलैंगिक श्रेणियों में नहीं बाँटा. जैसे कि महाभारत में चाहे वह शिखण्डी के लिँग बदलाव की कथा हो या अर्जुन का वर्ष भर नारी बन के जँगल घूमना हो, इन कथाओं में परम्परागत भारतीय विचारकों ने यौनिक भिन्नता की परिभाषाएँ नहीं खोजीं. तो सँशय उठता है कि हिन्दी में "क्वीयर साहित्य" की पहचान करना, भारतीय सोच और दर्शन को पश्चिमी सोच के आईने में टेढ़ा मेढ़ा करके बिगाड़ तो नहीं देगा?

इसी भारतीय तथा पश्चिमी सोच के अन्तर के विषय पर एक अन्य उदाहरण श्री अमिताव घोष की अंगरेज़ी में लिखी पुस्तक "सी आफ पोप्पीज़" (Sea of poppies) है जिसमें एक पात्र हैं बाबू नबोकृष्णो घोष जो तारोमयी माँ के भक्त हैं और इसी भक्ति में लीन हो कर स्वयं को माँ तारोमयी का रूप समझते हैं. इस पात्र की कहानी को केवल अंतरलैंगिकता या समलैंगिकता के रूप में देखना, उसकी साँस्कृतिक तथा आध्यात्मिक जटिलता का एकतरफ़ा सरलीकरण होगा जिससे पात्र को केरिकेचर सा बना दिया जायेगा. इसलिए भारतीय भाषाओं में "क्वीयर लेखन" की बहस में इस बात पर ध्यान रखना भी आवश्यक है.

जैसे रुथ ने कहा कि कोई भी इस विषय पर अच्छा लिखे, तो अच्छी बात है और उसे सराहना चाहिये. लेकिन मेरी नज़र में यह उतना ही महत्वपूर्ण कि स्वयं को "यौनिक भिन्न" स्वीकारने वाले लोग भी लिखें. भारतीय समाज ने अक्सर इस दिशा में बहुत संकीर्ण दृष्टिकोण लिया है. इस सारी बहस को अनैतिक, गैरकानूनी व अप्राकृतिक कह कर समाज ने लाखों व्यक्तियों को शर्म और छुप छुप कर जीने, अन्याय सहने, घुट घुट कर मरने के लिए विवश किया है. पिछले दशक में इस बारे में कुछ बात खुल कर होने लगी है. ओनीर की "माई ब्रदर निखिल" और "आई एम" जैसी फ़िल्मों ने इस बहस को अँधेरे से रोशनी में लाने की कोशिश की है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध लेखक विक्रम सेठ ने अपने द्विलैंगिक होने के बारे में लिखा है. इस तरह से अगर यौनिक भिन्न लोग अपनी भिन्नता को स्वीकारते हुए लिखेंगे तो इस विषय को शर्म और अँधेरे में छुपे रहने से बाहर निकलने का रास्ता मिलेगा.

आज की दुनिया में अपने विचार अभिव्यक्त करने के लिए ब्लाग सबसे आसान माध्यम है. बड़े शहरों में और अंग्रेज़ी बोलने वाले युवक युवतियों ने ब्लाग की तकनीक का लाभ उठा कर "भिन्न यौनिक" ब्लाग बनाये हैं, जैसे कि आप इन तीन उदाहरणों में देख सकते हैं -  एक, दो, तीन.

जहाँ तक मुझे मालूम है, हिन्दी का केवल एक चिट्ठा है "आधा सच" जिसपर कुछ किन्नर या अंतरलैंगिक व्यक्ति अपनी बात कहते हैं. क्या इसके अतिरिक्त क्या कोई अन्य हिन्दी, मैथिली, भोजपुरी, अवधी, राजस्थानी आदि में इस तरह के अन्य चिट्ठे हैं? क्या स्थानीय स्तरों पर भारत के छोटे शहरों में, कस्बों में भी इस विषय पर लोगों ने कुछ लिखने की हिम्मत की है? क्या कुछ अंडरग्राइड पत्रिकाएँ या किताबें छपी हैं इस विषय पर?

यह नहीं कि चिट्ठों पर इस विषय पर लिखने मात्र से वह "यौनिक भिन्न" साहित्य हो जायेगा. साहित्य होने के लिए उसे साहित्य के मापदँडों पर भी खरा उतरना होगा, लेकिन शायद उन्हें शुरुआत की तरह से तरह से देखा जा सकता है जहाँ कल के "यौनिक भिन्न" साहित्य जन्म ले सकते हैं.

अगर आप के पास इस बारे में कोई जानकारी है तो कृपया मुझसे ईमेल से सम्पर्क कीजिये या नीचे टिप्पणीं छोड़िये. इस सहायता के लिए आप को पहले से ही मेरा धन्यवाद.

आप मुझसे ईमेल के माध्यम से सम्पर्क कर सकते हैं. मेरा ईमेल पता है sunil.deepak(at)gmail.com (ईमेल भेजते समय "(at)" को हटा कर उसकी जगह "@" को लगा दीजिये)

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