बुधवार, मई 20, 2009

आखिरी बार

अमरीकी लेखिका और कवि जोयस केरोल ओटस् (Joyce Carol Oates) की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ पढ़ी और उनके बारे में देर तक सोचता रहाः

आखिरी बार किसी व्यक्ति को देखो, पर तुम्हें मालूम न हो कि वह आखिरी बार है.
बस यही सब कुछ मालूम है अब, अगर उस समय यह जानते तो ....
पर उस समय नहीं जानते थे, और अब तो बहुत देर हो गयी.

रविवार, मई 17, 2009

घुमक्कड़ी चटनी

पिछले साल की तीन छुट्टियाँ बची थीं, उसके साथ सप्ताहअंत के दो दिन, शनिवार और रविवार, को मिला कर छुट्टी के कुल पाँच दिन बनते थे. कभी भी छुट्टियाँ हो तो अक्सर हम लोग उत्तरी इटली में वेनिस से करीब सौ किलोमीटर उत्तर में बिबियोने नाम के शहर में जाते हैं जहाँ समुद्र से सौ मीटर दूर मेरी पत्नी का छोटा सा पारिवारिक घर है. इस बार भी सोचा कि चलो वहीं चलते हैं.

इटली में हाईवे पर 130 किलोमीटर की गति से कार चला सकते हैं. इस तरह से, बोलोनिया से बिबियोने की 350 किलोमीटर की दूरी करीब ढाई घँटे में पूरी करके जब हम लोग बिबियोने पहुँचे तो समझ में आया कि यह वहाँ छुट्टियाँ बिताने का समय नहीं था. मैं साथ में एक जैकेट ले कर गया था पर पहले दिन समुद्र के किनारे सैर करते हुए इतनी ठँडी हवा थी कि कँपकपी होने लगी और दाँत बजने लगे. बोलोनिया में भी हवा में कुछ ठँडक थी, विषेशकर सुबह सुबह, लेकिन बिबियोने में तो जैसे अभी भी सर्दी का मौसम चल रहा था. मैं सपने देख रहा था कि समुद्र में नहाऊँगा पर पानी में पैर का अँगूठा भी गीला करने की हिम्मत नहीं हुई. चुपचाप घर में आ कर, खिड़कियाँ दरवाज़े बंद करके, कँबल लपेट कर बैठ गये.

सोच कर निर्णय लिया कि समुद्र तट पर छुट्टी बिताने का विचार छोड़ कर, आसपास घूमने की जगह पर जाना का सोचना अधिक बेहतर होगा. दोपहर को हिम्मत करके हम लोग काओर्ले शहर की ओर घूमने निकले. यह समुद्रतट पर बसा प्राचीन शहर अपने रँगबिरँगे गुड़िया जैसे घरों के लिए प्रसिद्ध है और यहाँ करीब 1000 ईस्वी का बना सुंदर गिरजाघर और साथ में जुड़ा गोलाकार घँटाघर है. 

यहाँ हर वर्ष समुद्रतट पर रखे पत्थरों पर शिल्पकारी करने के लिए देश विदेश के प्रसिद्ध शिल्पकारों को आमंत्रित किया जाता है, जिससे समुद्र तट पर सैर करने का अर्थ है कि शिल्प प्रदर्शनी को देख सकते हैं. यहाँ सर्दी भी बिबियोने के मुकाबले कुछ कम थी तो घूमना कुछ आसान रहा.



***
दूसरे दिन सुबह हम लोग कार ले कर उत्तर की ओर निकल पड़े, जहाँ एल्प के पहाड़ हैं. यहाँ तारवीजियो नाम के शहर पर आस्ट्रिया से इटली की सीमा मिलती है. तारवीजियो के आसपास का इलाका बहुत सुंदर लगा, हरी भरी घाटियों और बर्फ़ से ढके पहाड़ों से भरा. चूँकि दोनो देश यूरोपियन यूनियन का हिस्सा हैं तो इटली से आस्ट्रिया जाने में न पासपोर्ट की जाँच की आवश्यकता है न ही पैसे बदलने की, क्योंकि दोनो देशों में यूरो चलता है. फर्क है कि इटली में हाईवे पर जितनी बार जाओ हर बार कुछ पैसे देने पड़ते हैं, जबकि आस्ट्रिया में घुसते ही आप साढ़े सात यूरो की टेक्स स्टेम्प खरीद कर कार पर लगा लीजिये, जिससे आप 10 दिन तक आस्ट्रिया में कहीं भी हाईवे पर कार चला सकते हैं.

बिबियोने से करीब दो घँटे की यात्रा के बाद हम लोग करीब पच्चीस किलोमीटर लम्बी वोर्थर झील के किनारे बसे शहर क्लिंगमफर्ट पहुँचे. इटली के मुकाबले में झील के किनारे बिल्कुल सर्दी नहीं थी, बल्कि हल्की सी गर्मआहट थी. हम कुछ देर घूमे फ़िर वहीं झील के किनारे खाना खाया.



तब तक दोपहर का एक बजने लगा था. तो फ़िर से कार ली और इस बार पूर्व की ओर मुड़े, थोड़ी देर में ही हम आस्ट्रिया छोड़ कर स्लोवेनिया में पहुँच गये. स्लोवेनिया जो कि पहले यूगोस्लाविया का हिस्सा होता था, अब स्वतंत्र देश है और यूरोपियन यूनियन का हिस्सा है इसलिए यहाँ जाने के लिए भी पासपोर्ट की जाँच की आवश्यकता नहीं और न ही पैसे बदलने की. हाँ दोनो देशों के बीच बनी आठ किलोमीटर लम्बी कारावंकल सुरंग में जाने के लिए 3 यूरो की फीस देनी पड़ी. दोपहर को तीन बजे हम स्लोवेनिया की राजधानी ल्युबल्याना पहुँच गये. शहर के पुराने केंद्र के करीब ही तिवोली बाग हैं जहाँ हमें कार पार्क करने की जगह मिल गयी.




ल्युबल्याना शहर का पुराना हिस्सा बहुत सुंदर है. दो घँटे कैसे बीते पता ही नहीं चला हाँलाकि हम लोग केवल शहर के बीचो बीच गुजरती ल्युबल्यानिका नदी के आसपास का हिस्सा ही देख पाये, जाँ पेसेरेन स्काव्यर है, नदी पर साथ साथ तीन पुल बने हैं. शहर के पुराने नक्काशी और चित्रकारी से सजे भवन, भव्य मूर्तियाँ, नदी के आसपास सुंदर कैफे सब ने मन मोह लिया. यहाँ भी हल्की हल्की गर्मी थी, सुहाना मौसम था.

पाँच बजे के करीब वापस चले दक्षिण में इटली की ओर और रात को आठ बजे के करीब हम लोग बिबियोने में घर में थे, फ़िर से सर्दी से ठिठुरते. एक दिन में हमने करीब पाँच सौ किलोमीटर की यात्रा की थी, और इटली के अलावा दो देशो में हो कर आये थे. कुछ थकान भी थी, पर संतोष भी था.

***
तीसरे दिन सुबह उठने में थोड़ी देर हो गयी. पिछले दिन की यात्रा की थकान जो थी. खैर सुबह ग्यारह बजे फ़िर से निकले और उत्तर में त्रियस्ते होते हुए स्लोवेनिया में कोज़ीना पहुँचे, जहाँ दोपहर का भोजन किया और गाँव की दुकान से एक टोपी खरीदी. फ़िर कार ले कर हम लोग रूपा होते हुए क्रोएशिया में घुसे. क्रोएशिया चूँकि यूरोपियन यूनियन का हिस्सा नहीं तो यहाँ घुसने के लिए पासपोर्ट देखे गये, कुछ पैसे भी बदलवाये. क्रोएशिया के पैसे को कूना कहते हैं और एक यूरो के 7.30 कूना मिलते हैं यानि कि एक कूना की कीमत हुई करीब आठ रुपये.

हम लोग समुद्र तट पर बसे शहर रियिका पहुँचे. स्लोवेनिया के मुकाबले में यहाँ अधिक गरीबी दिख रही थी, घर और भवन कम साफ़, अधिक पुराने और खस्ता हालत के लग रहे थे. कार पार्क करके हम लोग समुद्र के सामने वाले हिस्से में घूमे, एक बार में बैठ कर काफी पी.



अगर उस दोपहर के बारे में सोचूँ तो सबसे पहली याद आती है शहर के पुराने हिस्से में एक पुराने टूटे हुए घर की हवा में तैरती सीड़ियाँ. जाने किसने वह घर प्यार से बनवाया हो, अवश्य कोई पैसे वाला था, जाने उन सीढ़ियों ने कितने लोगों की आम जीवन की कितनी हँसी, आँसू, झगड़े देखे हों, और आज वह वस्त्रहीन हो कर, गिरने का इंतज़ार कर रहीं हैं. 


आज फ़िर इटली से बाहर दो देशों में घूम कर आने का संतोष था.

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छुट्टी का चौथा दिन, घूमने के लिए अंतिम दिन था. सोचा कि आज अधिक दूर न जा कर, बल्कि करीब के दो छोटे शहरों को देखा जाये, ओदेर्जो और पोर्तो बूफेले. पहले ओदेर्जो पहुँचे तो पार्किंग खोजने में देर लगी, समझ में नहीं आया कि इतने छोटे से शहर इतनी कारें कहाँ से आ गयीं कि पार्किंग करने को जगह न मिले. शहर के मुख्य स्काव्यर पहुँचे तो समझ में आया, वहाँ कारों की प्रदर्शनी और सेल लगी थी. कारों में एक टाटा इंडिका भी दिखी, पहली बार इटली में टाटा की कार दिखी थी.



थोड़ी देर में ही हम भीड़ से थक कर पोर्तो बूफेले की ओर चले जिसे छोटा वेनिस भी कहते हैं. वहाँ पहुँचे तो कारों की भीड़ देख कर और भी हैरान हुई, इतनी भीड़ की शहर में घुसने से पहले ही, बाहर सड़क पर कारों की लाईन लगी थी. किस्मत अच्छी थी कि जैसे ही हम पहुँचे, एक कार जा रही थी और हमें वह जगह मिल गयी.

पोर्तो बुफेले शहर नहीं, छोटा सा गाँव है और उस दिन वहाँ पुरानी वस्तुओं यानि एंटीक को बेचने वाला मेला लगा था जिसके लिए दूर दूर से लोग आये थे. एक दुकान में मुझे एक एंटीक कपड़े रखने वाला रैक दिखा जो मुझे बहुत अच्छा लगा और थोड़े से पैसों में मिल गया.


भीड़ में घूमने का उतना मज़ा नहीं था लेकिन पुरानी वस्तुओं को देखना अच्छा लगा.

***
बोलोनिया में घर वापस आये तो बहुत थकान लग रही थी. इस छोटी सी छुट्टी में घूम घूम कर अपनी चटनी बन गयी थी. फ़िर भी मुझसे रहा नहीं गया, दोपहर को रंग खरीद कर लाया और पोर्तो बुफेले में जो पुराना कपड़ों का रैक ले कर आया था उसे रँगा. अब वह बिल्कुल पुराना नहीं लगता, बल्कि बहुत सुंदर लगता है. कई मित्र मुझसे पूछ चुके हैं कि इतना सुंदर रैक कहाँ से लिया. यही इन छुट्टियों की यादगार रहेगा.


चार दिनों की घुमाई में जो चक्कर लगाये, उन्हें आप इस नक्शे में देख सकते हैं.

शनिवार, मई 16, 2009

पुरानी फ़िल्में

कहानी क्या थी, विषय क्या था, यह सब कुछ याद नहीं था. याद थीं बस गाने की दो पक्तियाँ, "मेरे मन के दिये, यूँ ही घुट घुट के जल तू मेरे लाडले, ओ मेरे लाडले" और याद थी अँधेरे में दिया लिए तुलसी के पौधे के सामने पूजा करतीं सीधी सादी अभिनेत्री साधना जो उस समय बहुत अच्छी लगी थी. जहाँ तक याद है, वह फ़िल्म मैंने 1966 या 1967 में टेलीविजन पर देखी थी. वह श्वेत श्याम टीवी का ज़माना था जब शाम को कुछ घँटों के लिए दूरदर्शन का प्रसारण आता था. हमारे घर पर टीवी नहीं था इसलिए जब चित्रहार और रविवार की फ़िल्म प्रसारित होती तो पड़ोस में एक घर में उसे देखने जाते थे. फ़िल्म का यह गाना मन को बहुत भाया था, पर दोबारा उसे कभी सुना नहीं था.

पिछले महीने, चालीस साल बाद दिल्ली के पालिका बाज़ार में जब बिमल राय की 1960 की फ़िल्म "परख" की डीवीडी देखी तो तुरंत वही गाना मन में गूँज गया और डीवीडी खरीदी.



कुछ दिन पहले जब यह फ़िल्म देखी तो उतना आनंद नहीं आया, जिसकी बिमल राय की फ़िल्मों से अपेक्षा होती थी. शायद इसकी वजह हो कि मुझे गम्भीर फ़ल्में अधिक पसंद हैं जबकि "परख" हल्की फ़ुल्की फ़िल्म है जिसका विषय है समाज में पैसे का लालच और झूठ मूठ की बनावट. कहानी है गरीब लेकिन ईमानदार गाँव के पोस्टमास्टर की, जिन्हें ज़िम्मेदारी मिलती है कि एक बड़ी रकम को किसी अच्छे काम के लिए उपयोग किया जाये और कैसे उस बड़ी रकम को पाने के लिए सारे गाँव के बड़े लोग, यानि ज़मीनदार, डाक्टर, पुजारी आदि सब लोग तिकड़म लगाते हैं.



कहानी में पोस्टमास्टर की बेटी और गाँव के आदर्शवादी अध्यापक का प्रेम प्रसंग भी है, पर यह फ़िल्म का छोटा सा हिस्सा है. फ़िल्म में बड़े हीरो हीरोईन नहीं, पर उस समय के जाने माने बहुत से अभिनेता अभिनेत्रियाँ हैं जिनमें मोतीलाल, नज़ीर हुसैन, लीला चिटनिस, जयंत, कन्हैयालाल, असित सेन जैसे लोग हैं. पोस्टमास्टर की बेटी के भाग में हैं साधना, जिनकी यह प्रारम्भिक फ़िल्मों में से थी, और गाँव के अध्यापक के भाग में हैं बसंत चौधरी. फ़िल्म की कहानी और संगीत सलिल चौधरी का है.

सीधी साधी ग्लैमरविहीन साधना जिन्होंने इस तरह के भाग फ़िल्मों में कम ही किये, इस फ़िल्म में बहुत अच्छी लगती हैं. और फ़िल्म का संगीत बहुत बढ़िया है. "ओ सजना, बरखा बहार आयी", "गिरा है किसी का झुमका", "बंसी क्यों गाये, मुझे क्यों बनाये" जैसे लता मँगेशकर के गाने अभी भी सुनने को मिल जाते हैं. हाँ जो गीत मुझे सबसे अधिक प्रिय था, "मेरे मन के दिये", वह न जाने क्यों सफ़ल नहीं हुआ था, पर चालिस साल बाद दोबारा सुनना बहुत अच्छा लगा.

अगर आप यह गीत सुनना चाहें तो इसे यहाँ सुन सकते हैं

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एक मित्र ने पिछले क्रिसमस पर मुझे एक पुरानी रुसी फ़िल्म की डीवीडी भेंट दी, अँद्रेई तारकोव्स्की की फ़िल्म "इवान का बचपन" (Ivanovo Detstvo). यह फ़िल्म 1962 से है. अँद्रेई को रुसी सिनेमा को जानने वाले, बिमल राय जैसा ही बढ़िया सिनेमा बनाने वाला मानते हैं. मित्र बोले, तुम्हें गम्भीर फ़िल्में अच्छी लगती हैं तो यह भी अच्छी लगेगी. मैंने डीवीडी को लिया और संभाल कर रख लिया पर देखने का मन नहीं किया. लगा कि बोर करने वाली फ़िल्म होगी.



"परख" देखी तो जाने क्यों मन में आया कि "इवान का बचपन" को भी देखा जाये. फ़िल्म बहुत अच्छी लगी, इसका प्रिंट भी बहुत बढ़िया है, हर दृश्य साफ़ चमकता हुआ. फ़िल्म रूसी में थी जिसपर अँग्रेज़ी के सबटाईटल थे. फिल्म के कई दृश्य ऐसे लगते हैं कि मानो किसी चित्रकार ने तस्वीरें बनायीं हों. फिल्म की कहानी है द्वितीय महायुद्ध के समय में रूस और जर्मनी की लड़ाई की, जिसमें इवान, एक रूसी बच्चा छिप कर जर्मन हिस्से में जासूसी करने जाता है और रूसी सेना को सारी दुशमन की सारी खबर ला कर देता है. ईवान के पूरे परिवार को उसके सामने जर्मन सिपाहियों ने मार दिया था जिससे वह प्रतिशोध की आग में जल रहा है.

जब यह फ़िल्म बनी, रूस में यह समय स्टालिन की मृत्यु के बाद का था. शायद रूसी सिनेमाकार अधिक स्वतंत्र महसूस करते थे, उनमें नयी चेतना जागी थी जो फ़िल्म में झलकती है. फ़िल्म रूसी साम्यवाद की भावनाओं से भरी है और साथ ही रूसी दृष्टिकोण दिखाती है, यानि रुसी सभी अच्छे और नेकदिल लोग दिखाये गये हैं जो बच्चों को प्यार करते हैं, अच्छे कपड़े पहनते हैं, अच्छा खाना खाता हैं, गाना गाते हैं, साफ़ सुथरे रहते हैं, आदि. दूसरी तरफ़, जर्मन सभी क्रूर और हृदयहीन जानवर जैसे दिखाये गये हैं. पर इस सब के बावजूद फ़िल्म इस तरह से बनायी गयी है कि इसकी रोचकता कम नहीं होती.



तकनीकी दृष्टि से फ़िल्म बहुत सुंदर है. फ़िल्म का पहला दृष्य जिसमें एक बच्चा धूप में घास पर खेल रहा है, एक स्वपन का दृष्य है जो तब समझ में आता है जब बम गिरते हैं और सोया इवान नींद से चौंक कर उठ जाता है, बहुत सुंदर है. दृष्यों का कम्पोज़ीशन, रोशनी और छाया का प्रयोग, इत्यादि बहुत सुंदर हैं. फ़िल्म को दोबारा देखने का मन करता है, यही सब तकनीकी बातें बेहतर समझने के लिए. ईवान का भाग करने वाले बच्चे का अभिनय बहुत बढ़िया है.

मंगलवार, अप्रैल 07, 2009

जो सिर दर्द नहीं देते

इराकी मूल की कवियत्री, दुनया मिखाईल की एक कविता पढ़ी, बहुत अच्छी लगी (मेरा अनुवाद):

उन सब को धन्यवाद जिनसे प्यार नहीं करती
क्योंकि मुझे सिर दर्द नहीं देते
उन्हें मुझे लम्बे पत्र नहीं लिखने पड़ते
वह मेरे सपनों में आ कर नहीं सताते
न उनकी प्रतीक्षा में चिता करती हूँ
न उनके भविष्य अखबारों में पढ़ती हूँ
न उनके टेलीफ़ोन के नम्बर मिलाती हूँ
न उनके बारे में सोचती हूँ
उन्हें बहुत धन्यवाद
वे मेरे जीवन को उथल पथल नहीं करते

***
सोच रहा था कि फ़िल्म फेस्टिवल में देखी फ़िल्मों के बारे में लिखूँ पर भूचाल से हुए विनाश नें सब बातों को भुला दिया. हालाँकि किसी जान पहचान वाले को कुछ नहीं हुआ पर ध्वस्त हुए शहर में कई बार जाना हुआ था. सुना कि पिछली बार जिस होटल में ठहरा था, वह ढह गया. लोगों की दर्द भरी कहानियाँ सुन कर मन भीग गया.

शुक्रवार को एक रिचर्च प्रोजेक्ट की मीटिंग के लिए बँगलौर जाना है. दिन यूँ ही बीत जाते हैं, धर्मवीर भारती जी कविता याद आती है, "दिन यूँ ही बीत गया, अँजुरी में भरा हुआ जल जैसे रीत गया."


बुधवार, अप्रैल 01, 2009

गायक का धर्मयुद्ध

कल रात को बोलोनिया फ़िल्म फैस्टिवल उद्घाटन हुआ जिसमें मानव अधिकारों के विषय पर बनी फ़िल्मों को दिखाया जाता है. इस बार मैं लघु फ़िल्मों के फैस्टिवल की जूरी का अध्यक्ष हूँ, जिसका फ़ायदा यह है कि कहीं पर जा कर कोई भी फ़िल्म देख लो. कल रात को मैंने अमरीकी फ़िल्मकार छाई वरसाहली की फ़िल्म "आई ब्रिंग व्हाट आई लव" (Chai Varsahely, I bring what I love, USA, 2008) यानि "मैं जिससे प्यार करता हूँ, उसे लाया हूँ", जो मुझे बहुत पसंद आयी.

फ़िल्म का विषय है सेनेगल के सुप्रसिद्ध गायक यासनदूर (Youssou N'Dour) का धर्मयुद्ध. सेनेगल में 94 प्रतिशत लोग मुसलमान हैं पर वहाँ का इस्लाम सूफ़ी इस्लाम है जिसमें कट्टरपन नहीं, जिसमें स्त्रियाँ पर्दा नहीं करती. सेनेगल के सूफ़ी इस्लाम के सबसे बड़े संत और धार्मिक नेता हैं शेख बाम्बा जो धर्मनेता होने के साथ साथ उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोपीय उपनिवेशी शासन के विरुद्ध भी लड़े थे.

यासनदूर की कहानी शुरु होती है करीब दस साल पहले जब कोई उनसे प्रश्न पूछता है कि वह रमजान के महीने में गाना क्यों नहीं गाते, क्या इसका कारण है कि इस्लाम में संगीत को हराम माना जाता है यानि गाना अच्छा काम नहीं ? यासनदूर इस बात से सहमत नहीं, सोचते हैं कि सेनेगल के जीवन में जिस तरह का इस्लाम विकसित हुआ है उसमें संगीत तो जीवन की धड़क है, बिना संगीत के जीवन भी नहीं होगा. तब उनके मन में विचार आया कि सेनेगल के सूफ़ी इस्लाम के बारे में गीत बनायें. इस एल्बम को बनाने के लिए उन्होंने मिस्री संगीतकारों को चुना और यह एल्बम सन 2001 में तैयार की गयी, इसका नाम था ईजिप्ट यानी मिस्र.


11 सितंबर 2001 में अमरीका में आतंकवादी हमलों को बाद यासनदूर को लगा कि वह समय इस्लाम के बारे में संगीत सुनाने का नहीं था, लोग इसको आतंकवाद का समर्थन समझ सकते थे, इसलिए ईजिप्ट का संगीत को उन्होंने रोक लिया और सन 2004 में रमजान के महीने में निकाला. इस एल्बम का सेनेगल में सख्त विरोध किया गया. कहा गया कि यह इस्लाम विरोधी है और बाज़ार में इसके कैसेट बेचने पर रोक लगा दी गयी.

यासनदूर को बहुत धक्का लगा पर उन्होंने हार नहीं मानी. यासनदूर कहते हैं, "यह सवाल था कि कौन यह निर्धारित करता है कि इस्लाम में क्या जायज है और क्या हराम? हमारा सूफ़ी इस्लाम क्या इस तरह से सोचता है? क्यों अरब देश वाले हमारे इस्लाम को सीमाओं में बंद करना चाहते हैं ?" उन्होंने निश्चय किया कि वह विदेशों में इजिप्ट के धर्मसंगीत को ले कर जायेंगे. मोरोक्को में फेज़ धार्मिक संगीत फैस्टिवल में उन्होंने पहली बार अपने इस संगीत को प्रस्तुत किया जिसे बहुत प्रशंसा मिली.

हर देश में मिली सफलता भी यासनदूर के मन को शाँती न दे सकी, जब अपने ही देश में जितनी बार उन्होंने इस संगीत को सुनाने की कोशिश की इसका तीव्र विरोध हुआ, मारा काटी दंगे हुए. वह इस संगीत को ले कर संत बाम्बा की दरगाह पर बनी मस्जिद में भी ले कर गये, पर वहाँ अफवाह फ़ैल गयी कि वह दरगाह में नगीं लड़कियों को नाच कराना चाहते हैं और बहुत दंगे हुए.

समय ने करवट ली जब फरवरी 2005 में "इजिप्ट" को ग्रेमी पुरस्कार मिला. सेनेगल में भी धूम मची, राष्ट्रपति ने यासनदूर को बुला कर उनका संगीत सुना और आखिरकार यासनदूर का सपना पूरा हुआ, अपने देश में अपना संगीत अपनी मर्जी से गाने का.

"मैं मुक्त हो गया इस युद्ध से, स्वंत्रता क्या होती है यह समझ आया है. हमें अपने विचारों की रक्षा करनी है, यह नहीं मानना कि कोई हमें यह बताये कि हमारे धर्म में क्या सही क्या गलत", यासनदूर कहते हैं.

रविवार, मार्च 29, 2009

संजय गाँधी की विरासत

आज के हिंदुस्तान टाईमस अखबार में वीर सिंघवी का आलेख पढ़ा जिसमें उन्होंने वरुण गाँधी को जेल में बंद होने पर भारतीय जनता पार्टी द्वारा पीलीभीत में किये जा रहे दंगा फसाद के बारे में लिखा है.

आलेख पढ़ते समय बहुत सी बातें मन में उठ रही थीं. जैसे कि सिंघवी जी को मैंने हमेशा सोनिया, प्रियंका और राहुल गाँधी के परिवार से जुड़े पत्रकार के रूप में देखा है तो सोच रहा था कि किस तरह वह संजय, मेनका और वरुण गाँधी पर वार कर सकते हैं, बाकी के गाँधी परिवार पर बिना कीचड़ उछालें ? क्या पारिवारिक राजनीति की बराई की जा सकती है पर उसके साथ सोनिया, राहुल आदि का नाम न जोड़ा जाये ?

आलेख बहुत चतुराई से लिखा गया है, कुछ थोड़ा सा दोष श्रीमति इंदिरा गाँधी पर डाला गया है, बाकि सब दोष संजय, मेनका और वरुण गाँधी पर ही डाला गया है. वरुण गाँधी के राजनीतिक घटियापन के साथ साथ ठगी, गुँडागर्दी, और उनके मोटापे को भी जोड़ा गया है, जबकि सोनिया तथा राहुल गाँधी का नाम सफ़ाई से बचा लिया गया है. मेरे विचार में आज के पत्रकार संघवी जी से बहुत कुछ सीख सकते हैं.

वरुण जी का हिंदू धर्म के रक्षक होने के नाटक में मुझे नये धर्मपरिवर्तित का कट्टरपन दिखता है या फ़िर शायद केवल राजनीतिक नाटक. सच में कोई क्या सोचता है इससे वरुण के हिंदुपन का कुछ मतलब नहीं लगता. किससे अधिक वोट मिलें या किससे मेरे विपक्षियों को अधिक नुकसान हो, वही बात कहनी है, ऐसा लगता है. पारसी दादा, ब्राहम्ण दादी, सिख नाना नानी की विरासत मिली है वरुण को, जिसकी धर्मों और सभ्यताओं की मिलावट में ही मेरे विचार में भारतीयता की असली पहचान है. इस विरासत को नकार कर, अगर वह असली हिंदू होने का दावा करके हिंसा के लिए भड़काएँ तो यह शायद भारतीय जनतंत्र के हाल का लक्षण है, जहाँ राजनीति केवल ताकत और सम्पति को पाने का रास्ता है, नैतिकता या सत्य से उसका कुछ लेना देना नहीं. पर इस कीचड़ में वरुण हीं अकेले नहीं, सभी नेता और राजनीतिक दल भागीदार हैं.

लेख में संजय गाँधी की गुँडागर्दी की भी चर्चा है. मुझे एक बार संजय गाँधी से मिलने का मौका मिला था. मेडीकल कोलिज में पढ़ रहे थे. बात 1975 या 1976 की है. दिल्ली के सफ़दरजंग अस्पताल के साथ बना था हमारा कुछ वर्ष पहले खुला नया मेडिकल कोलिज. कुछ झँझट था कि हमें सफ़दरजंग अस्पताल में इंटर्नशिप नहीं करने को मिल रही थी बल्कि किसी अन्य अस्पताल में दूर जाना पड़ता, तो इसका विरोध करने के लिए सब विद्यार्थियों ने मिल कर संजय गाँधी से मिलने का विचार बनाया था. सबको मालूम था कि न वह कोई मिनिस्टर थे न उनका कोई सरकारी ओहदा था, उनकी ताकत केवल प्रधान मंत्री का पुत्र होने में थी. वह हमसे बहुत आत्मीयता से मिले थे, धीरज से हमारी बात सुनी थी. उनके दफ्तर के बाहर बाग में, काफ़ी देर तक वह हमारे साथ बैठे थे. शायद इतनी आत्मीयता और मृदुभाषिता का कारण हमारे दल में कई सुदंर छात्राओं का होना था या फ़िर उन्हें डाक्टरों से सुहानुभूति थी. उनसे मिलने के कुछ दिनो बाद ही सफ़दरजंग में हमारी इंटर्नशिप होने की बात को मान लिया गया था.

यह मालूम है कि मानव में क्षमता है एक तरफ़ सभ्यता का नकाब पहनने की और दूसरी ओर दानवता के कर्मों की. एमरजैंसी में क्या क्या हुआ था इसकी बात भी जानी थी. पर जब भी संजय गाँधी के गुँडेपन या असभ्यता की बात होती है तो उस मुलकात के मितभाषी, शर्मीले से लगने वाले नवयुवक संजय गाँधी का चेहरा सामने आ जाता है.

बुधवार, फ़रवरी 25, 2009

एक अन्य अयोध्या

भारत में तो अयोध्या देखने का अभी तक मौका नहीं मिला पर जब थाईलैंड में वहाँ की अयोध्या के बारे में सुना तो निश्चय किया कि अवश्य देखने जाऊँगा. हिंदु धर्म और भारतीय संस्कृति का थाईलैंड पर बहुत प्रभाव है जिसका एक उदाहरण वहाँ का राजपरिवार है जहाँ हर राजा को राम का नाम दिया जाता है. आज के थाई राजा श्री भूमिबोल जिन्होंने सन 1950 में राज शासन सँभाला, उन्हें "राम नवम" के नाम से भी जाना जाता है. अठारहवीं शताब्दी तक थाईलैंड की राजधानी थी प्राचीन शहर अयोध्या जिसे थाई भाषा में अयुथ्या भी कहते हैं.

पूछा तो मालूम चला कि अयोध्या शहर बैंकाक से करीब 80 किलोमीटर दूर है, पर उस सड़क पर यातायात बहुत होने से यात्रा का समय दो घँटे तक हो सकता है. बैंकाक से स्थानीय रेलगाड़ी भी मिलती है अयोध्या जाने के लिए पर उसमें भी दो घँटे लगते हैं. दिक्कत यह थी कि मैं बैंकाक काम पर आया था और दिन भर कहीं जाने का समय नहीं मिलता था. बस एक रविवार की सुबह ही थी जिस दिन खाली था पर उस दिन भी, दोपहर को एक बजे किसी को मिलना था.

रविवार को सुबह छह बजे ही होटल से निकला और फटफटिया ले कर विक्टरी मोनूमैंट पहुँचा जहाँ से अयोध्या की बस मिलने की जानकारी ली थी. विक्टरी मोनूमैंट चौराहा है जहाँ बीच में गोल बाग है और हर दिशा में सड़कें निकलती हैं. तब मालूम चला कि हर कोने से कहीं न कहीं की मिनीबसें जा रहीं थीं और सही सड़क खोजने में, जहाँ से अयोध्या वाली मिनीबस मिलनी थी, कुछ देर लगी. मिनीबस में बैठा तो पता चला कि इनके चलने का कोई पक्का समय नहीं, जब पूरी भर जाती है तभी चल पड़ती है. बस को भरते भरते कुछ देर लगी, तो मन में खुलबुलाहट हो रही थी कि एक ही तो सुबह मिली है घूमने के लिए और वह भी यात्रा में ही निकल जायेगी. करते करते सात बजे बस चली तो बहुत तेजी से और 45 मिनट में हम लोग अयोध्या पहुँच गये थे. यानी रविवार सुबह को यातायात कम होने का कुछ फायदा हुआ. इस यात्रा का किराया था 65 भाट यानि कि करीब 90 रुपये.

थाई अयोध्या शहर तीन नदियों के संगम पर बना है. मिनीबस शहर के नदियों से घिरे बीच के द्वीप में बोंग आयन सोई मार्ग पर रुकती है, वहाँ से मैं छाऊ फ्राया नदी की ओर निकला, सुना था कि वहाँ फेरी बोट स्टेशन के पास साईकिल किराये पर ली जा सकती है. साईकिल की दुकान को खोजने में देर नहीं लगी. साईकल का एक दिन का किराया था 40 भाट यानि कि 55 रुपये. साईकल की दूकान वाली लड़की नें साथ ही शहर का नक्शा भी दिया और  इस तरह साईकल ले कर हम निकल पड़े शहर देखने.

मेरा सबसे पहला पड़ाव था सड़क के किनारे बना एक भग्न बुद्ध मंदिर जिसका नक्शे में कोई नाम नहीं था, न ही कोई बोर्ड लगा था, न कोई देखने वाला वहाँ, न टिकट. वहाँ थी एक मीनार जैसी छेद्दी या स्तूप और सामने पत्थरों पर रखी बुद्ध के सिर की मूर्ती. सब कुछ जीर्ण और गिरता हुआ. बहुत सुंदर लगा और थोड़ा सा दुख हुआ कि उसकी अच्छी देखभाल नहीं हो रही थी.




अगला पड़ाव था महाथाट बुद्ध मंदिर. यहाँ टिकट था 50 भाट. यह अयोध्या का सबसे प्राचीन मंदिर माना जाता है. कई एकड़ फ़ैले इस मंदिर में अधिकतर खण्हर ही हैं. मुझसे सबसे अच्छा लगी पीत वस्त्र में बुद्ध की एक प्रतिमा और पंक्तियों में योग मुद्रा में बैठी सिर विहीन प्रतिमाएँ. इस मंदिर में इधर से उधर घूमने में बहुत समय निकल गया.






मंदिर से निकला तो फ़िर रुका एक बाग में जहाँ एक तरफ़ नाचती अप्सरा थी और दूसरी ओर एक अन्य बुद्ध मूर्ती. तब तक सूरज प्रखर हो चुका था और गर्मी बढ़ने लगी थी.



घड़ी देखी तो पाया कि दस बज चुके थे, तो फ़िर साईकल निकाली और चल पड़ा सम्माराट मंदिर की ओर. इस मंदिर में लोग पूजा करने आते हें और यहाँ देखने के लिए कोई शुल्क नहीं. एक ओर प्राचीन मंदिर के भग्नावशेष हैं जहाँ पंक्ति में खड़ी शेरों की मूर्तियाँ बहुत सुंदर हैं..




पीछे की ओर कमल की पँखुड़ियों में बना बुद्ध मुख भी है जो मुझे कुछ विषेश नहीं जँचा. सामने के भाग में राजा की तस्वीर के सामने भी पूजा हो रही थी और साथ ही वहां बहुत सी मुर्गों की मूर्तियाँ थीं जिनका महत्व मैं समझ नहीं पाया. थाईलैंड में यही दिक्कत है कि अँग्रेज़ी जानने वाले लोग बहुत कम हैं और किसी से कुछ पूछना थोड़ा कठिन है.




घड़ी की सूईयाँ निष्ठुरता से भाग रही थीं, मेरा घूमने का समय चुकता जा रहा इसलिए तुरंत अगले पड़ाव की ओर रुख किया, यानि फ्रा सी सनफेट मंदिर. सनफेट राज भवन का प्राचीन मंदिर था और बहुत सुंदर है. मंदिर के पीछे की ओर प्राचीन राजभवन के खण्डर भी हैं.



मुझे लगने लगा था कि वापस बैंकाक पहुँचनें में देर हो जायेगी इसलिए सनफेट मंदिर में थोड़ा सा रुका और फ़िर साईकल को वापस देने चला. पूरा चक्कर लगा कर वापस साईकल की दुकान पर पहुँचा तो वहाँ काम करने वाली युवती थोड़ी हैरान हुई कि मैं कुछ ही घँटों में वापस आ गया था.

वापस बस अड्डे पर जाने के लिए सीधा रास्ता न ले कर, बल्कि मछली और सब्जी बाज़ार के बीच में होते हुए बस स्टैंड पर वापस आया और वापस बैंकाक जाने की मिनीबस पकड़ी. किस्मत अच्छी थी, अपनी मीटिंग से कुछ मिनट पहले ही वापस होटल पहुँच गया.



यह अयोध्या यात्रा छोटी सी थी, कुछ ठीक से नहीं देखा, थोड़े से मंदिर देखे बस, न तो नाव से नदी की यात्रा की, न ही नये शहर को देखा. मन को समझाया कि इस बार किस्मत में इतना ही था. किस्मत होगी तो फ़िर वहाँ जाने का मौका मिलेगा.

रविवार, फ़रवरी 08, 2009

वास्तुशिल्प से सभ्यता को जानना

भारत से मित्र आते हें तो उनकी अपेक्षा होती है कि उन्हें घुमाने ले जाया जाये और जब मैं उन्हें कोई गिरजाघर दिखाने जाता हूँ तो एक दो गिरजाघर देख कर थोड़ा बोर से हो जाते हैं, कहते हैं यार कुछ और दिखाओ. उनकी नज़र में गिरजाघर एक धार्मिक जगह होती है और उन्हें लगता है कि एक देखा तो मानो सभी देख लिये. फ़िर पूछते हैं यहाँ कोई महल, किले आदि नहीं हैं क्या?

कभी समझाने की कोशिश करुँ कि इटली ही नहीं, यूरोप के प्राचीन गिरजाघरों में पश्चिमी समाज की कला, इतिहास, संस्कृति और सभ्यता की वह झलकें मिल सकती हैं जो अन्य किसी महल, किले में नहीं मिलेंगी तो लोग विश्वास नहीं करते. यूरोप में कैथोकिल ईसाई धर्म में धर्म और शासन दोनों मिले हुए थे, कई सदियों तक पोप धर्मनेता होने के साथ साथ शासन भी करते थे, यह बात सबको नहीं मालूम होती. इसी कारण, गिरजाघर केवल धर्म का इतिहास नहीं बताते बल्कि राज्य कैसे बना, कैसे बदला, उसका क्या प्रभाव पड़ा, यह सब बातें भी बता सकते हैं. यूरोप की बहुत सी चित्रकला, शिल्पकला आदि का विकास धर्म के विकास से जुड़ा है, और इनके सर्वश्रेष्ठ नमूने गिरजाघरों में ही बने. लियोनार्दो द विंची, माईकलएंजेलो जैसे कलाकार गिरजाघरों के लिए काम करने वाले कलाकार थे.

तो गिरजाघर से सभ्यता, संस्कृति को कैसे जाने और परखें, इसको समझाने के लिए, आईये आज आप को मेरे शहर बोलोनिया का एक गिरजाघर दिखाने ले चलता हूँ. इस गिरजाघर को इतालवी भाषा में सन फ्राँसचेस्को गिरजाघर कहते हैं यानि सेंट फ्राँसिस गिरजाघर. यह गिरजाघर बहुत प्रसिद्ध नहीं है, शहर में आने वाले कोई भूले भटके पर्यटक ही यहाँ तक पहुँचते हैं. किसी से पूछिये तो लोग कहेंगे कि हाँ, है यह गिरजाघर पर ऐसी कोई भी विषेश बात नहीं है इसमें.

इसका निर्माण करीब 1225 के आसपास शुरु हुआ और 1266 AD में पूरा हुआ. पहली बार इस गिरजाघर को लूटा 1796 में नेपोलियन की सेना ने, जिसनें शासन करने वाले पोप की सेना को हरा कर, बोलोनिया शहर पर कब्जा किया और इस गिरजाघर को गोदाम बना दिया, यहाँ पर रखी कलाकृतियों को पेरिस भेज दिया गया जहाँ यह लूव्र के संग्रहालय में आज भी देखी जा सकती हैं.

दूसरी बार इसका विनाश हुआ द्वितीय महायद्ध में जब अँग्रेज़ी और अमरीकी बमबारी से गिरजाघर नष्ट हो गया. इस पहली तस्वीर में अगर आप ध्यान से देखें तो सामने की दीवार पर बीच में दो लम्बी खिड़कियाँ और गोल खिड़की के आसपास बने नये भाग को स्पष्ट देख सकते हैं.



यह गिरजाघर गौथिक वास्तुशिल्प शैली का इटली में पहला नमूना है. गौथिक शैली उत्तरी यूरोप में फ्राँस, जर्मनी, ईंग्लैंड आदि में विकसित हुई. इस शैली की विषेशता है इसकी नोकदार महराबें (arch). इससे पहले रोमेस्क या नोरमन शैली में अर्धगोलाकार महराबें बनायी जाती थीं. गौथिक शैली की अन्य विषेशताऐँ हैं ऊँची छतें, जिन्हें नोकदार महराबों जैसी लकड़ी से सहारा दिया जाता है, लम्बी खिड़कियाँ जिससे अंदर बहुत रोशनी आये, बड़ी नक्काशीदार गोल खिड़कियाँ, और उठे हुए खम्बे जो बाहर से दीवारों को सहारा देते हैं. इससे पहले के रोमानेस्क शैली के भवन पक्के, मजबूत दिखते थे, इस शैली से ऊँचाई, रोशनी और भवन के हल्केपन को अधिक महत्व दिया जाने लगा.

आप रोमानेस्क वास्तुशिल्प शैली को मोटे भारी शरीर वाले व्यक्ति की तरह सोच सकते हैं तो गौथिक शैली उसके सामने कँकाल जैसा हवादार ढाँचे की तरह लगेगी.

चूँकि यह नयी शैली थी जो तब उभर रही थी, इसलिए इस गिरजाघर में यह सब विषेशताएँ उतनी स्पष्ट नहीं दिखती जैसी कि पेरिस के नोत्रदाम गिरजाघर या मिलान के कैथेड्रल या लंदन के केंटरबरी गिरजाघर में दिख सकती हैं, जो इस वास्तुशिल्प शैली को अधिक सफ़ाई से दिखाते हैं. जबकि यहाँ गौथिक नहीं, बल्कि रोमानेस्क और गौथिक शैलियों का मिश्रण दिखता है.





उन्हीं दिनो में बोलोनिया में नया विश्वविद्यालय बना था जिसमें दो तरह के विषय पढ़ाये जाते थे, कानून और कला. कानून और अधिकार का सम्बंध विकसित होते व्यापार से था तो कला का सम्बंध था भूगोल, विज्ञान, चिकित्सा, आदि विषयों से. तब कानून और अधिकार को अधिक महत्व दिया जाता था और इसके बड़े शिक्षकों और विषेशज्ञों को गिरजाघर में दफ़नाने का मौका मिलता. साथ ही इस गिरजाघर में कला पढ़ने वाले विद्यार्थियों को मिलने, बैठने की जगह मिलती.

गिरजाघर की दीवारों पर पुराने अधिकार और कानून पढ़ाने वाले कई शिक्षकों की अलग अलग तरह की कब्रें हैं. कोई कब्र पर अपने चेहरे की मूर्ती लगवाता था तो कोई अपने आप को किताब हाथ में लिये लेटा दिखाता था.




इस गिरजाघर में एक पोप भी दफ़्न हैं, 1410 AD में मरने वाले पोप अलेक्ज़ाडर पंचम. उस समय पोप में आपस में लड़ाई चल रही थी, फाँस में आविनोय्न में एक अन्य पोप बने थे, इसलिए सभी लोग अलेक्ज़ाडर पंचम को पोप नहीं मनाते थे.



गिरजाघर के बाहर भी कुछ अनौखी कब्रें हैं जिनमें कानून के विषेशज्ञ दफ़्न हैं, इसकी खासियत है पिरामिड जैसी हरी रंग की टाईल वाली गुम्बज. इन्हें इस तरह क्यों बनाया गया, या यह शैली कहाँ से आयी, यह मुझे समझ नहीं आया.



इन सब कब्रों में से मेरी सबसे प्रिय कब्र है जिसपर एक कक्षा का दृष्य बना है. बायीं ओर विद्यार्थियों की आपस में बात करना, दाहिने ओर एक विद्यार्थी अपने साथी को स्याही की शीशी दे रहा है, बीच में शिक्षक विद्यार्थियों को चुप कराने की कोशिश में उँगली से इशारा कर रहे हैं. पाँच सौ साल पहले की यह कक्षा जीवित सी लगती है और यह भी समझ आता है कि समय बीत जाये पर विद्यार्थी नहीं बदलते!



सेंट फ्राँसिस का नाम गाँधी जी तरह, शांती और सभी जीवों से प्यार के संदेश से जुड़ा है. सन 1899 में जब हालैंड में हैग शहर में पहली विश्व शाँती सभा का आयोजन हुआ था तो इस गिरजाघर में एक छोटा सा शाँती पूजा स्थल बनाया गया था जो आज भी देख सकते हैं.



आप बताईये, इतिहास की, समाज की, सभ्यता की, कितनी बातें छुपी हैं इस भूले भटके गिरजाघर में? अगर आप केवल गिरजाघर सोच कर देखेंगे तो यह सब कुछ नहीं दिखेगा, रुक कर ध्यान से देखेंगे तभी कुछ समझ में आयेगा.

बुधवार, दिसंबर 17, 2008

चपरासी से उपअध्यक्ष

दिल्ली से बचपन के मित्र ने समाचार पत्र की कटिंग भेजी है जिसमें लिखा है कि एक व्यक्ति जिसने 33 साल पहले दिल्ली के एक विद्यालय में चपरासी की नौकरी की थी, वही उस विद्यालय के वाईस प्रिसिपल यानि उप अध्यक्ष बने हैं. उस व्यक्ति का नाम है श्री गणेश चंद्र जो 55 वर्ष के हैं और जिन्होंने 1975 में दिल्ली के हारकोर्ट बटलर विद्यालय में चपरासी की नौकरी से जीवन प्रारम्भ किया था. उस समय वह मैट्रिक पास थे. उसके बाद धीरे धीरे उन्होंने बीए, एमए, बीएड, एमएड की डिग्री ली.

समाचार में लिखा है कि विद्यालय की एक अध्यापिका ने विद्यालय कमेटी के इस निर्णय के विरुद्ध हाई कोर्ट में दावा किया पर हाई कोर्ट ने दावा नहीं माना, इस तरह श्री गणेश चंद्र जी अपने नये पद पर कायम हैं.

इस समाचार से खुश होना तो स्वाभाविक ही है, मेरी खुशी और अधिक है क्योंकि बात मेरे विद्यालय की है, जहाँ ग्यारह साल तक पढ़ा था. मैं श्री चंद्र को नहीं जानता, उनके नौकरी पर आने से पहले ही मेरी पढ़ायी समाप्त हो चुकी थी, लेकिन मेरी ओर से उन्हें और हारकोर्ट बटलर विद्यालय की कमेटी को बहुत बधाई.

बिरला मंदिर के साथ बने इस सुंदर विद्यालय की मन में पहले ही बहुत सी सुंदर यादें थीं, उनके साथ यह गर्व भी जुड़ गया.




कुछ वर्ष पहले की इस तस्वीर में हरकोर्ट बटलर विद्यालय का पीछे वाला प्राईमरी स्कूल वाला हिस्सा, बिरला मंदिर से.

शुक्रवार, दिसंबर 05, 2008

गोरी, गोरी, ओ बाँकी छोरी

कियारा मेरी पुरानी मित्र है. वह एक इतालवी गायनाकोलोजिस्ट यानि स्त्री रोग की डाक्टर हैं. 1991 में जब हम पहली बार मिले थे तो वह दक्षिण अमरीकी देश निकारागुआ से लौटी थीं, जहाँ शासन से लड़ने वाले गोरिला दलों के बीच में रह कर उन्होंने आठ साल गाँवों में काम किया था. उन्होंने एक पत्रिका में मेरा अफ्रीकी देश कोंगो के एक अस्पताल के बारे में मेरा लेख पढ़ा था और तब उन्होंने निश्चय किया था कि वह उस अस्पताल में ही जा कर काम करेंगी और इसी सिलसिले में हम लोग पहली बार मिले थे.

पिछले सत्रह सालों में कियारा ने कोंगो में रह कर जीवन की कई कठिनाईयों का सामना किया है. एक सड़क दुर्घटना में अपनी दायीं बाजु खोयी है, युद्ध में अपने कई साथियों को मरते देखा है, आकाल के समय में गरीबों के बीच गरीबी में कीड़े मकोड़े खा कर रही हैं, पर इस सब के बावजूद उस अस्पताल में काम करने का अपना इरादा नहीं बदला. यह अस्पताल वहाँ का कैथोलिक चर्च चलाता है और आसपास करीब अस्सी किलोमीटर तक कोई अन्य अस्पताल नहीं इसलिए लोग मीलों चल कर वहाँ आते हैं. अपनी कृत्रिम बाजू की कमी को कियारा ने साथ काम करने वाली नर्सों को शिक्षा दे कर की है.

जब भी कियारा बोलोनिया आतीं हैं तो हमारे यहाँ ही ठहरती है और हम दोनो बहुत बातें करते हें, बहुत बहस करते हैं, रात को देर देर तक. पिछले दो दिनों से कियारा हमारे यहाँ थी और आज सुबह सुबह ही वापस रोम गयी है. कल रात को हमारी बहस शुरु हुई तो बहुत देर तक चली. अधिकतर बातों में मेरे विचार कियारा से मिलते हैं, मैं उसकी लड़ाईयों को समझता हूँ और उनसे सहमत भी हूँ पर कल रात को उससे कुछ असहमती थी इसलिए बहस अच्छी हुई. आज कियारा को रोम में एक मीटिंग में जाना है जहाँ रंगभेद की बात की जायेगी.

कियारा का कहना था कि कोंगो में लोगों में त्वचा का रंग गोरा करने का फैशन चल पड़ा है जिसमें स्वास्थ्य को नुकसान करने वाले पदार्थो, क्रीमों और साबुनों का प्रयोग किया जाता है जैसे कि पारे वाले साबुन या क्विनोंलोन वाली क्रीमें जिनसे केंसर तक हो सकता है, और त्वचा खराब हो जाती है. उसका यह भी कहना था कि अक्सर यह क्रीमें साबुन आदि वहाँ भारतीय कम्पनियाँ बेचती हैं. साथ ही वह कह रही थी कि हमारी त्वचा का रंग कुछ भी हो हमें उस पर गर्व होना चाहिये, हर रंग सुंदर होता है यह मानना चाहिये और स्वयं को अधिक गोरा करने की कोशिश करना गलत है.

मेरा कहना था कि अगर गोरा करने वाली क्रीम या साबुन में स्वास्थ्य को नुकसान देने वाले पदार्थ हैं तो इसके बारे में जानकारी देना सही है और कोशिश करनी चाहिये कि इन कम्पनियों के बेचे जाने वाले सामान के बारे में जन चेतना जगायी जाये और इन क्रीमों साबुनो के बेचने पर रोक लगनी चाहिये. लेकिन जहाँ तक शरीर को गोरा करने की कोशिश करने की बात है, यह तो समाज में बसे श्याम रंग के प्रति भेदभाव का नतीज़ा है, जब तक उस भेदभाव को नहीं बदला जायेगा, लोगों को यह कहना कि आप इस तरह की कोशिश न करिये शायद कुछ बेतुकी बात है.

मैं यह मानता हूँ कि हम सबको अपने आप पर गर्व होना चाहिये, चाहे हम जैसे भी हों, चाहे हमारी त्वचा का रंग कुछ भी हो, चाहे हम पुरुष हों या स्त्री, चाहे हमारी यौन पसंद कुछ भी हो, चाहे हमारा कोई भी धर्म या जाति हो, चाहे हम जवान हों या वृद्ध. पर यह गर्व कोई अन्य हमें नहीं दे सकता है यह तो हम अपनी समझ से ही खुद में विकसित कर सकते हैं.

हमें समाज की सोच को बदलने की भी कोशिश करनी चाहिये ताकि समाज में भेदभाव न हो. पर अगर कोई भेदभाव से बचने के लिए, शादी होने के लिए, नौकरी पाने के लिए, या किसी अन्य कारण से अपना रंग गोरा करना चाहता है या झुर्रियाँ कम करना चाहता है या पतला होना चाहता है या विषेश वस्त्र पहनता है, तो इसमें उसे दोषी मानना या उसे नासमझ कहना गलत है. समाज की गलतियों से लड़ाई का निर्णय हम स्वयं ले सकते हें, दूसरे हमें यह निर्णय लेने के लिए जबरदस्ती नहीं कर सकते.

साथ ही मेरा कहना था कि काला होना भी गर्व की बात है, काले वर्ण में भी उतनी ही सुंदरता है यह बात काले वर्ण के लोग कहें तो बेहतर होगा. अगर गोरे लोग जिंन्होंने स्वयं भेदभाव को नहीं सहा, उनके लिए यह कहना आसान है पर साथ ही ढोंग भी हो सकता है.

चाहे भारत हो, चाहे अफ्रीकी देश, योरोपीय देश या ब्राजील, अमरीका जैसे देश, कहीं भी देखिये, पत्रिकाओं में, टेलीविज़न में, फ़िल्मों में कितने गहरे काले रंग वाले लोग दिखते हैं? अगर श्याम वर्ण के लोग हों भी तो वैसे कि रंग साँवला हो, गहरा काला नहीं. भारत में तो यह रंगभेद इतना गहरा है कि विवाह के विज्ञापन में बेशर्मी से साफ़ लिखा जाता है कि गोरे वर्ण की कन्या को खोज रहे हैं.

सुबह कियारा को रेलवे स्टेशन छोड़ने गया तो बोली कि वह मेरी बातों पर रात भर सोचती रही थी और अपनी मीटिंग में मेरी बात को भी रखेगी.

आप बताईये, अगर आप से पूछा जाये कि गोरा करने वाली क्रीमों के बैन कर देना चाहिये तो आप क्या कहेंगे?

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