रविवार, जनवरी 29, 2012

कला यात्रा


आज कल यहाँ हमारे शहर बोलोनिया (Bologna, Italy) में अंतर्राष्ट्रीय कला मेला चल रहा है जिसमें शहर भर में पचासों कला प्रदर्शनियाँ लगी हैं. मेरी दृष्टि में कला का ध्येय केवल आँखों को अच्छा लगना ही नहीं है बल्कि दुनिया को नयी नज़र यानि कलाकार की दृष्टि से देखना भी है. सोचा कि इस तरह का मौका मिले कि विभिन्न देशों के जाने माने कलाकारों का काम देखने को मिले तो छोड़ना नहीं चाहिये. लेकिन सभी कला प्रदर्शनियों को देखने जाने के लिए तो सारा दिन भी काफ़ी नहीं था, इसलिए सोचा कि केवल शहर के प्राचीन केद्र के आसपास लगी कला प्रदर्शनियों को देखने जाऊँगा.

मध्ययुगीन इटली में सुरक्षा के लिए शहरों के आसपास ऊँची दीवारें बनायी जाती थीं और शहर के घेरे के केन्द्र में एक बड़ा खुला सा मैदान बनाया जाता था जहाँ जन समारोह के लिए शहर के सब लोग इकट्ठे हो सकते थे. इसी मैदान के पास शहर का सबसे बड़ा गिरजाघर यानि कैथेड्रल होता था, नगरपालिका का भवन और बड़े रईसों के घर भी. इस तरह से इटली के हर छोड़े बड़े शहर में यह प्राचीन केन्द्र होते हैं, जहाँ खुला मैदान होने से वहाँ अक्सर साँस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है. मेरा विचार था कि वहीं जाया जाये क्योंकि वहाँ आसपास ही बहुत सी प्रदर्शनियाँ लगी हैं जिनके लिए चलना भी कम पड़ता. शहर के अन्य हिस्सों में लगी कला प्रदर्शनियों को देखने जाता तो इधर उधर जाने में आधा समय निकला जाता.

शाम को सात बजे घर से निकला तो अँधेरा घना हो रहा था और तापमान शून्य से कुछ नीचे ही था. केन्द्र में पहुँचा तो सबसे पहला मेरा पड़ाव था "कला तथा विज्ञान" के विषय पर लगी प्रदर्शनी. इस प्रदर्शनी का ध्येय था आधुनिक जीवन में कला और विज्ञान के मिलन से किस तरह हमारा जीवन बदल रहा है, उसे दिखाना. फेसबुक, गूगल तथा यूट्यूब जैसी इंटरनेट की तकनीकें, नेनो तकनीकी का विकास, मानव डीएनए के नक्शे जैसी विज्ञान की खोजों, आदि से आज का हमारा जीवन, कला को जानना परखना, सामाजिक समस्याएँ जैसे स्त्री पर गृह और पारिवारिक हिँसा या एल्सहाईमर जैसी बीमारियाँ, यह सब कुछ बदल रहा है. यह प्रदर्शनी इसी बदलाव को दिखलाती थी.

Bologna art fair and art first - S. Deepak, 2012

कला यात्रा का मेरा दूसरा पड़ाव था अमरीकी कलाकार किकी स्मिथ की बनी "खड़ी हुई नग्न आकृति", जिसमें उन्होंने नग्न स्त्री मूर्ति को बनाया है. किकी के शिल्प का विषय अक्सर नारी होता है लेकिन वह आम तौर के बनाये जाने वाले शिल्प जिसमें नारी शरीर की सुन्दरता या रूमानी रूप दिखाने पर ज़ोर होता है, उसमें वह विश्वास नहीं करतीं. उनके शिल्प की औरतों के शरीर सामान्य लोगों के शरीर होते हैं और इन आकृतियों से वह सामाजिक समस्याओं की ओर ध्यान खींचती है, विषेशकर औरतों पर होने वाली समस्याओं की ओर, जैसे कि हिँसा और सामाजिक शोषण.

Bologna art fair and art first - S. Deepak, 2012

इसके बाद मैं मिस्री शिल्पकार मुआताज़ नस्र की बनायी शिल्पकला "प्रेम की मीनारें" देखने गया. इस शिल्प में उन्होंने सात विभिन्न तत्वों से भिन्न धर्मस्थलों की मीनारें बनायी हैं. यह तत्व हैं मिट्टी, काठ, शीशा, क्रिस्टल और कुछ धातुएँ. सभी मीनारों की नोक पर अरबी भाषा में एक ही शब्द लिखा हुआ था. मेरे विचार में उन्होंने अवश्य उन मीनारों पर अपनी भाषा में "प्रेम" या "खुदा" लिखा होगा, लेकिन सच में क्या लिखा है यह तो कोई अरबी जानने वाला ही बता सकता है.

Bologna art fair and art first - S. Deepak, 2012

इसके बाद मैं वहाँ करीब बने प्राचीन राजभवन में गया जहाँ प्राचीन कला का संग्रहालय है. यह जगह मुझे बहुत पसंद है और इस संग्रहालय में मैंने कई बार कई घँटे बिताये हैं. संग्रहालय के बाहर के हाल की दीवारों और छत पर मनमोहक चित्रकारी है जिसके गहरे काले, कथई और भूरे रंग मुझे बहुत भाते हैं, जी करता है कि उन्हें देखता ही रहूँ. इसी हाल में फ्राँस के राजा नेपोलियन ने बोलोनिया की सैना को 1796 में हरा कर अपना शासन की घोषणा की थी.

Bologna art fair and art first - S. Deepak, 2012

कला संग्रहालय की छत पर जो चित्रकारी की गयी है उसे "त्रोम्प लोई" (Trompe-l'oiel) यानि "आँख का धोखा" कहते हैं. इसकी चित्रकारी इस तरह की है जिससे पत्थर की नक्काशी का धोखा होता है. संग्रहालय की छत पर इतने सुन्दर चित्र बने हैं कि जी करता है ऊपर ही देखते रहो. पर चूँकि ऊपर देखने से गर्दन दुखने लगती है, मैं छत की तस्वीरें खींच लेता हूँ और उन्हें कम्प्यूटर पर आराम से देखना अधिक पसंद करता हूँ. अगली तस्वीर में "आँख का धोखे" का एक नमूना प्रस्तुत है, आप बताईये कि यह पत्थर की नक्काशी लगती है या नहीं?

Bologna art fair and art first - S. Deepak, 2012

आजकल बोलोनिया में और यूरोप में करीब करीब हर शहर में, अधिकतर जगहों पर, संग्रहालयों आदि में तस्वीर खींचने की स्वतंत्रता है, बस फ्लैश का उपयोग करना मना है क्योंकि फ्लैश की तेज रोशनी से पुरानी कलाकृतियों को नुक्सान हो सकता है और संग्रहालय में घूम रहे अन्य लोगों को भी परेशानी होती है. इस तरह तस्वीरें लेने की छूट होने का फायदा है कि जो लोग यहाँ आते हैं वह फेसबुक, गूगल प्लस और यूट्यूब आदि से यहाँ की कलाकृतियों के बारे में लोगों को बताते हैं और संग्रहालय को मुफ्त में विज्ञापन मिल जाते हैं.

प्राचीन कला संग्रहालय में इतालवी कलाकार मेस्त्राँजेलो की दो कलाकृतियाँ लगी थी. मुझे उनकी कलाकृति "कोगनिती दिफैंसोर" यानि "ज्ञान की रक्षा" अच्छी लगी, जिसमें उन्होंने अठाहरवीं शताब्दी की किताबों को ले कर उन्हें रंग बिरंगी रोशनी वाली तारों से सिल दिया है.

Bologna art fair and art first - S. Deepak, 2012

मेरा अगला पड़ाव था एक छोटी सी सड़क पर लगी नये युवा कलाकारों की प्रदर्शनी जहाँ कलाकृतियों के साथ ही एक वाईनबार भी था जहाँ पर एक डीजे संगीत बजा रहे थे और लोग कलाकृतियों के आसपास नाच रहे थे या वाईन की चुस्कियाँ लेते हुए बातें कर रहे थे. जैसा कि आप अनुमान लगा सकते हैं यहाँ पर नवयुवकों की बहुत भीड़ थी. मुझे यहाँ लगी कलाकृतियों में इतालवी युवा फोटोग्राफर पाओला सन्डे की तस्वीर अच्छी लगी जिसमें उन्होंने एक कपड़े सिलने वाली फैक्टरी में एक लाल स्कर्ट पहने हुए मोडल की तस्वीरों को मिला कर नयी तस्वीर बनायी है, लगता है कि फैक्टरी में काम करने वाली युवतियाँ मोडल को विभिन्न तरीकों से सिल रही हैं. आप चाहें तो पाओला सन्डे की तस्वीरों को उनके वेबपृष्ठ पर देख सकते हैं.

Bologna art fair and art first - S. Deepak, 2012

Bologna art fair and art first - S. Deepak, 2012

इसके बाद मैं पुरात्तव संग्रहालय में लगी कला प्रदर्शनी को देखने गया, जहाँ मुझे नीना फिशर तथा मारोअन अल सनी की वीडियो कला "डिस्टोपिक स्पैलिंग" ने प्रभावित किया. इस वीडियो कलाकृति में इन दो कलाकारों ने जापान के एक द्वीप की कहानी को लिया है जहाँ 1974 तक कोयले की खाने थीं और लोग रहते थे, पर अब वहाँ कोई नहीं रहता और खानें बन्द हो गयी हैं. वीडियो में एक तरफ़ एक जापानी स्कूल की लड़कियाँ हैं जो द्वीप के वीरान स्कूल के खेल के मैदान में मिल कर अपने शरीरों से जापानी भाषा में शब्द लिखती हैं और दूसरी ओर पुराने वीरान स्कूल के कमरों की और लड़कियों की फ़िल्म चलती है, जिसमें पीछे से आवाजें हैं - उस द्वीप पर बड़े होने वाले एक युवक की जो पुराने दिनों के बारे में बताता है, और एक जापानी फँतासी फ़िल्म की जिसमें फ़िल्म में होने वाली हिँसा के विवरण हैं. सब कुछ इस तरह से मिला जुला है कि कला अनुभव में अतीत, आज, सत्य, फँतासी सब मिल जाते हैं.

Bologna art fair and art first - S. Deepak, 2012

मेरा अगला पड़ाव था बोलोनिया विश्वविद्यालय का पँद्रहवीं शताब्दी का प्राचीन भवन. यह भवन बहुत सुन्दर है, इसकी दीवारों पर यूरोप के प्राचीन घरानो से आने वाले विद्यार्थियों के राज परिवारों के हज़ारों चिन्ह सजे हैं. इस भवन के प्रागंण में इतालवी कलाकार फाबियो माउरी की कलाकृति "हार" थी जिसमें उन्होंने "हार" को श्वेत ध्वज से दर्शित किया था. मुझे उनकी कलाकृति कोई विषेश नहीं लगी, लेकिन उस सुन्दर भवन की रात की रोशनी में दिखती सुन्दरता की वजह से, सब मिला कर बहुत अच्छा लगा.

Bologna art fair and art first - S. Deepak, 2012

अब तक चलते घूमते मुझे थकान होने लगी थी तो सोचा कि बोलोनिया के मध्ययुगीन कला संग्रहालय में मेरा अंतिम पड़ाव होगा. यहाँ पर संग्रहालय के प्राँगण में फ्लावियो फावेल्ली की कलाकृति "कम्युनिस्ट पार्टी को वोट दीजिये" कुछ अलग लगी. उन्होंने नीचे लकड़ी और उस पर लगे पुराने विज्ञापन के चित्र को बहुत खूबी से बनाया है.

Bologna art fair and art first - S. Deepak, 2012

बाहर निकला तो साथ के फावा भवन से बहुत से लोगों को बाहर आते देखा. हालाँकि अब तक पैर दुखने लगे थे फ़िर भी वहाँ घुस कर अन्य कलाकृतियों को देखने के लोभ को रोक नहीं पाया. वहाँ कलाकृतियों के बीच में एक युवती पियानो का संगीत बजा रही थी, जिससे शिल्पकला और संगीत दोनो का साथ आनन्द मिल रहा था. मुझे वहाँ दो कलाकृतियाँ बहुत अच्छी लगी - लूचियो फोन्ताना की नीले रंग की "ओलिम्पिक चैम्पियन" की मूर्ति और आर्तुरो मार्तीनी की मिट्टी की बनी "पागल माँ".
Bologna art fair and art first - S. Deepak, 2012

Bologna art fair and art first - S. Deepak, 2012

अंत में बाहर निकला तो बस स्टाप तक चल कर जाने में कठिनाई हो रही थी, करीब आधी रात होने वाली थी. कला प्रदर्शनियों में पाँच घँटे घूमा था. बीच में एक क्षण के लिए भी कहीं बैठ कर आराम नहीं किया था.

इसलिए थकान तो बहुत थी पर मन में संतोष भी था कि कुछ समय के लिए अपनी गाड़ी की कला की टंकी फुल भरवा ली थी. आप बताईये आप को कैसे लगी मेरी यह कला यात्रा?

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शुक्रवार, जनवरी 27, 2012

यादों की पगडँडियाँ


इंटरनेट के माध्यम से भूले बिसरे बचपन के मित्र फ़िर से मिलने लगे हैं.  किसी किसी से तो तीस चालिस सालों के बाद सम्पर्क हुआ है.

उनसे मिलो तो कुछ अजीब सा लगता है. बचपन के साथी कुछ जाने पहचाने से पर साथ ही कुछ अनजाने से लगते हैं.

जिस बच्चे या छरहरे शरीर वाले नवयुवक की छवि मेरे मन में होती है, उसकी जगह पर अपने जैसे सफ़ेद बालों वाले मोटे से या टकले या बालों को काला रंग किये अंकल जी को देख कर लगता है कि जैसे शीशे में अपना प्रतिबिम्ब दिख गया हो. उनसे थोड़ी देर बात करो तो समझ में आता है कि हमारी बहुत सी यादे मेल नहीं खाती. जिन बातों की याद मेरे मन में होती है, वह उन्हें याद नहीं आतीं और जिन बातों को वह याद करते हैं, वह मुझे याद नहीं होती. यानि जिस मित्र की याद मन में बसायी थी, यह व्यक्ति उससे भिन्न है, समय के साथ बदल गया है. उन्हें भी कुछ ऐसा ही लगता होगा.

अगर मिलते रहो तो बदलते समय के साथ बदलते व्यक्ति से परिचय रहता है, पर अगर वर्षों तक किसी से कोई सम्पर्क न रहे तो परिचित व्यक्ति भी अनजाना हो जाता है.

चालिस साल बाद वापस अपने स्कूल में "पुराने विद्यार्थियों की सभा" में गया तो यह सब बातें मेरे मन में थी. सोचा था कि बहुत से पुराने साथियों से मिलने का मौका मिलेगा, पर चिन्ता भी थी कि उन बदले हुए साथियों से किस तरह का मिलन होगा. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, मेरे साथ के थोड़े से ही लोग आये थे और दिल्ली में रहने वाले अधिकतर साथी उस सभा में नहीं आये थे. जो लोग मिले उनमें से कोई मेरे बचपन का घनिष्ठ मित्र नहीं था.

Harcourt Butler school

पुराने मित्र नहीं मिले, लेकिन स्कूल की पुराने दीवारों, क्लास रूम और मैदान को देख कर ही पुरानी यादें ताजा हो गयीं. स्कूल के सामने वाले भाग से पीछे तक की यात्रा मेरी ग्याहरवीं से पहली कक्षा की यात्रा थी.

ग्याहरवीं कक्षा के कमरे की पीछे वाली वह बैंच जहाँ घँटों मित्रों से बहस होती थी और जब रहेजा सर भौतिकी पढ़ाते थे तो कितनी नींद आती थी! बायलोजी की लेबोरेटरी जहाँ केंचुए और मेंढ़कों के डायसेक्शन होते थे. आठवीं की क्लास की तीसरी पंक्ति की वह बैंच जहाँ से खिड़की से पीछे बिरला मन्दिर की घड़ी दिखती थी और जहाँ मैं अपनी पहली कलाई घड़ी को ले कर बैठा था, जो कि पापा की पुरानी घड़ी थी. पाँचवीं की वह क्लास जहाँ नानकचंद सर मुझे समझाते थे कि अगर मेहनत से पढ़ूँगा अवश्य तरक्की करूँगा. वह मैदान जहाँ इन्द्रजीत से छठी में मेरी लड़ाई हुई थी. खेल के मेदान के पास की वह दीवार जहाँ दूसरी के बच्चों ने मिल कर तस्वीर खिंचवायी थी.

लेकिन चालिस साल पहले अपना स्कूल इतना जीर्ण, टूटा फूटा सा नहीं लगता था.  हर ओर पुरानी बैंच, खिड़की के टूटे शीशे, कार्डबोर्ड से पैबन्द लगी खिड़कियाँ दरवाज़े, देख कर दुख हुआ. सरकारी स्कूल को क्या सरकार से पैसा मिलना बन्द हो गया था? आर्थिक तरक्की करता भारत इस पुराने स्कूल से कितना आगे निकल गया, जहाँ कभी भारत के प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू अपने जन्मदिन पर हम बच्चों को मिलने आये थे और उन्होंने हवा में सफ़ेद कबूतर छोड़े थे.

Harcourt Butler school

Harcourt Butler school

स्कूल से निकला तो जी किया कि साथ में जा कर बिरला मन्दिर को भी देखा जाये और उसकी यादों को ताजा किया जाये. पर जैसा सूनापन सा स्कूल में लगा था, वैसा ही सूनापन बिरला मन्दिर में भी लगा. बाग में बने विभिन्न भवनों को जनता के लिए बन्द कर दिया गया है. लगता है कि भवन की देखभाल के लिए उनके पास भी माध्यम सीमित हो गये हैं.

"स्वर्ग नर्क भवन" जो हमारे स्कूल के मैदान से जुड़ा था और जहाँ अक्सर हम स्कूल की दीवार से कूद कर पहुँच जाते थे, का निचला हिस्सा अब विवाहों के मँडप के रूप में उपयोग होता है और भवन का ऊपर वाला हिस्सा बन्द कर दिया गया है. इसी तरह से अन्य कई भवन काँटों वाली तारों से घिरे बन्द पड़े थे.

Harcourt Butler school

वह गुफ़ाएँ जहाँ हम लोग अक्सर "आधी छुट्टी" के समय पर छुपन छुपाई खेलते थे, उन पर गेट बन गये थे और ताले लगे थे. बीच की ताल तलैया सूखी पड़ी थीं. सबसे अधिक दुख हुआ जब देखा कि बाग में से बुद्ध मन्दिर जाने का रास्ता भी बड़े गेट से बन्द कर दिया गया है. बुद्ध मन्दिर में पूछा तो बोले कि दोनो मन्दिरों में इस तरह से आने जाने का रस्ता 1985 में बन्द कर दिया गया था.

Harcourt Butler school

Harcourt Butler school

बिरला मन्दिर के बाहर की दुनिया तो बहुत पहले ही बदल चुकी थी. सामने वाले खुले स्क्वायर और छोटे छोटे सरकारी घरों की जगह पर बहुमंजिला मकान बने हैं, और वहाँ जो खुलापन और हरियाली दिखती थी वे वहाँ वह गुम हो गये हैं. सामने एक नया स्कूल भी बना है जिसकी साफ़ सुथरी रंगीन दीवारों और चमकते शीशों के सामने अपना पराना स्कूल, कृष्ण के महल में आये सुदामा जैसा लगता है. शायद नया प्राईवेट स्कूल है?

वापस घर लौट रहा था तो सोच रहा था कि यूँ ही दिन और मूड दोनो को बेवजह ही खराब किया. पुरानी यादों को वैसे ही सम्भाल कर रखना कर चाहिये था, वह भी यूँ ही बिगड़ गयीं. अब जब अपने स्कूल के बारे में सोचूँगा, बजाय पुरानी यादों के, इस बार का सूनापन याद आयेगा.

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सोमवार, दिसंबर 26, 2011

श्रीमान छू मन्तर


Special body art of Liu Bolin
चीन के शिल्पकार, चित्रकार और फोटोग्राफ़र श्री ल्यू बोलिन (Mr. Liu Bolin) अपनी "बोडी आर्ट" यानि "शरीर को रँगने की कला" के लिए जग प्रसिद्ध हैं.

36 वर्षीय ल्यू का जन्म शानडोंग शहर में हुआ और 1995 में उन्होंने शिल्पकला में डिग्री पायी. उन्हें प्रसिद्ध मिली 2008 में उन्होंने "इन्विसिबल इन द सिटी" (Invisible in the city) यानि "शहर में अदृश्य" नाम की अपनी प्रदर्शनी लगायी जिसमें उन्होंने अपने शरीर को विभिन्न पृष्ठभूमियों के हिसाब से इस तरह रंग कर तस्वीर खिंचवाई कि तस्वीर में उनको देख पाना बहुत कठिन था.

इस प्रदर्शनी ने सारी दुनिया में तहलका मचा कर उनका नाम प्रसिद्ध कर दिया. तब से उनकी विभिन्न प्रदर्शनियाँ दुनिया के विभिन्न देशों में लग चुकी हैं, और अलग अलग देशों में जा कर वह वहाँ के प्रसिद्ध स्थानों पर स्वयं को अदृश्य करके तस्वीरें खिंचवाते हैं. उनकी हर एक तस्वीर की तैयारी बहुत मेहनत का काम है, जिसमें दस बारह घँटे भी लग जाते हैं.

ल्यू को "अदृश्य पुरुष" या "श्रीमान गिरगिट" के नाम से भी जाना जाता है. जैसे कि नीचे की तस्वीर में देखिये, क्या आप को बिल्लियों के बीच छिपे हुए ल्यू दिखायी दिये?

Special body art of Liu Bolin

इटली में भी ल्यू अपनी दो प्रदर्शनियाँ लगा चुके हैं. पिछले वर्ष उनकी एक प्रदर्शनी को देखने का मौका मिला था, तब से मैं भी उनका प्रशंसक हो गया.

पहले प्रस्तुत हैं ल्यू की कुछ छू मन्तर होने की तैयारी और उसके परिणाम की तस्वीरें.

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin


कुछ अन्य ऐसी तस्वीरें प्रस्तुत हैं जिनमें वह बहुत कठिनाई से दिखते हैं.

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

Special body art of Liu Bolin

 कहिये क्या आप को ल्यू की यह अनूठी कला पसंद आयी या नहीं?

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बुधवार, दिसंबर 07, 2011

छोटी सी याद

1973-74. हम लोग दिल्ली से मध्य प्रदेश में नरसिंहपुर जा रहे थे. मेरे साथ मेरी एक मौसी और नानी थे. रेलगाड़ी रात को इटारसी स्टेशन पर पहुँची थी, जहाँ हम लोगों ने कुछ घँटे बिताये थे, अगली रेलगाड़ी के आने के इन्तज़ार में.

उस रात मुझे मिली थी ज़रीना वहाब और पहली मुलाकात में ही प्यार हो गया था. ज़रीना वहाब की तस्वीरें "नयी आने वाली अभिनेत्री" के शीर्षक से फ़िल्मफेयर पत्रिका में छपी थीं और उन तस्वीरों को देख कर मेरे दिल की धड़कन तेज़ हो गयी थी.

उन दिनों में मुझे ज़रीना वहाब की तस्वीरें खोजने का भूत सवार हुआ था. किसी पत्रिका में उनकी तस्वीर दिखती तो उसे खरीदने में ही जेबखर्च के सब पैसे चले जाते. तस्वीर को पत्रिका से काट कर संभाल कर रखता. उन तस्वीरों से बातें करता और सपने देखता उनसे मिलने के.

जब सुना था कि वह देवआनन्द साहब की फ़िल्म "इश्क इश्क इश्क" में आ रही हैं तो उस दिन मेडिकल कॉलिज की क्लास छोड़ कर उस फ़िल्म का पहले दिन का पहला शो देखने गया था. फ़िल्म में छोटा सा भाग था उनका लेकिन आज भी अगर उस फ़िल्म के बारे में सोचूँ, तो बस केवल उनका वही भाग याद हैं मुझे.

उनकी उस पहली फ़िल्म के बाद, बहुत समय तक उनकी कोई अन्य फ़िल्म नहीं आयी थी. फ़िर एक-दो सालों के बाद आयी थी बासू चैटर्जी की "चितचोर". जिस दिन वह फ़िल्म रिलीज़ हुई थी, उस दिन मेरा जन्मदिन था और अपने सब मित्रों के साथ दिल्ली के शीला सिनेमा हाल में पहले दिन का पहला शो देखने गया था.

Zarina Wahab Amol Palekar in Chitchor


फ़िर समय बीता और धीरे धीरे पर्दे पर या तस्वीरों में देखी ज़रीना वहाब का जादू अपने आप ही कम होता गया. उनकी जगह दूसरी छवियाँ बसीं मन में, दूसरे सपने आने लगे. फ़िर भी उनकी वे तस्वीरें मेरी डायरी में जाने कितने बरसों तक जमा रहीं थीं.

देवानन्द साहब की मृत्यु पर पिछले दिनों में बहुत आलेख निकले. उन्हीं में कहीं "इश्क इश्क इश्क" के बारे में पढ़ा तो अपने उस पहले नशे की यह बात याद आ गयी.

कैसा होता है मानव मन! भूली बिसरी बातें मन के कोनों में कहाँ छुपी बैठी रहती हैं और जैसे किसी ने बटन दबाया हो, तुरंत उठ कर यूँ सामने आती हैं मानो कल की ही बात हो.

इस बात के बारे में लिखते हुए पाया कि मैं गुनगुना रहा हूँ "तू जो मेरे सुर में सुर मिला ले"!

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रविवार, दिसंबर 04, 2011

मनीला में एक घँटा


केवल एक सप्ताह के लिए मनीला आया था और सारे दिन कोन्फ्रैंस की भाग-दौड़ में ही गुज़र गये थे. उस पर से यूरोप से सात घँटे के समय के अंतर की वजह से शाम होते होते नींद के मारे पलकें खुली रखना असम्भव सा लगता था, बस एक दिन रात को थोड़ी देर के लिए बाहर सैर करने को बाहर गया था, तो करीब के एक बाग में रंग बिरंगी रोशनी वाले संगीतमय फुव्वारे देखे थे, जिसमें संगीत की ताल पर पानी की धाराएँ इधर उधर डोलती हुई नृत्य करती हुई लगती थीं.

Musical fountain, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

Musical fountain, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

Musical fountain, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011


आखिर जिस दिन वहाँ से वापस आना था, उसी दिन सुबह जल्दी उठने का कार्यक्रम बनाया कि कम से कम मनीला छोड़ने से पहले, एक घँटे में कुछ आसपास घूम कर देखूँ. हमारा होटल शहर के मध्य में यूनाईटिट नेशन के मैट्रो स्टेशन के पास था. नक्शे में देखा कि जहाँ मैंने संगीतमय फुव्वारे देखे थे उसके करीब ही कुछ संग्रहालय और अन्य देखने वाली जगहें थी.

सुबह साढ़े पाँच बजे का अलार्म लगाया था. जब अलार्म बजा तो एक पल के लिए मन में आया कि करीब 24 घँटे की यात्रा की थकान का सामना करना था, कुछ और सोना ही बेहतर होगा. लेकिन फ़िर सोचा कि जाने कब दोबारा मनीला आने का मौका मिले, इसे खोना नहीं चाहिये. यही सोच कर मन कड़ा करके उठा और जल्दी से नहाया और सामान तैयार किया. जाने की सब तैयारी करके छः बजे होटल से सैर को निकला.

फिलीपीन्स देश करीब सात हज़ार द्वीपों से बना है जिसमें सबसे बड़े द्वीप हैं लूज़ोन, विसायास और मिन्डानाव. देश की राजधानी मनीला लूज़ोन द्वीप के दक्षिण में सागरतट पर है. इस देश का इतिहास स्पेनी साम्राज्यवाद से जुड़ा है. स्पेनी साम्राज्यवाद का प्रारम्भ हुआ 1565 में और स्पेनी शासकों ने ही इसे अपने राजा फिलिप द्वितीय के नाम से फिलिपीन्स का नाम दिया. स्पेनी शासन से पहले यह द्वीप अनेक राज्यों में बँटे थे जहाँ विभिन्न दातू, राजा और सुल्तान शासन करते थे. स्पेनी साम्राज्यवादियों के आने से पहले इन द्वीपों की सभ्यता पर हिन्दू, बुद्ध तथा इस्लाम धर्मों का प्रभाव था जबकि स्पेनी शासन में यहाँ के अधिकाँश लोगों ने ईसाई कैथोलिक धर्म को अपना लिया. स्पेनी साम्राज्य 1898 तक चला जब फिलिपीन्स गणतंत्र की स्थापना हुई. लेकिन स्पेनी शासकों ने फिलीपीन्स देश को अमरीका को बेच दिया और अमरीकी फिलीपीनो युद्ध के बाद, अमरीका ने इस देश पर कब्ज़ा कर लिया. द्वितीय महायुद्ध में जापानी फौज ने फिलीपीन्स पर कब्ज़ा किया और देश के बहुत से हिस्से इस युद्ध में बमबारी से नष्ट हो गये. द्वितीय महायुद्ध में करीब दस लाख फिलीपीन निवासियों की मृत्यु हुई. अंत में 1946 में फिलीपिन्स स्वतंत्र हुआ.

होटल से निकला तो बाहर मैट्रो स्टेशन पर काम पर जाने आने वालों की भीड़ दिखी. अभी सूरज नहीं निकला था इसलिए हवा में कुछ ठँडक थी. सड़क के किनारे खाने पीने का सामान बेचने वालों के खेमचे, सड़क पर झाड़ू लगाते सफ़ाई कर्मचारी, बैंचों और रिक्शे में सोये लोग आदि देख कर लगा मानो भारत में हों. यहाँ के रिक्शे भारत से भिन्न हैं. रिक्शा खींचने वाली साईकल रिक्शे के आगे नहीं बल्कि बाजु में लगी होती है और किसी किसी रिक्शे में साईकल के बदले मोटर साईकल भी लगी होती है. यहाँ पर अधिकतर लोग अंग्रेज़ी बोलते हैं. एक रिक्शे वाले ने बताया कि रिक्शा चलाने का लायसैंस लेना पड़ता है जिससे उस रिक्शे को केवल शहर के एक हिस्से में चलाने की अनुमति मिलती है और वह शहर के बाकी हिस्सों में नहीं जा सकते. मुझे लगा कि उनका अधिकतर काम मैट्रो से आने जाने वाले लोगों को आसपास की जगहों पर ले जाना होता है.

City life, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

City life, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

City life, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011


सबसे पहले तो मैं लापू लापू स्वतंत्रता सैनानी स्मारक पर रुका. श्री लापू लापू ने स्पेनी शासन के विरुद्ध लड़ायी की थी. इस स्मारक की विशालकाय मूर्ति देख कर मुझे भारत के विभिन्न शहरों में लगी विशालकाय देवी देवताओं की मूर्तियों की याद आ गयी. स्मारक के पास बाग में रात भर काम करके, मुँह हाथ धो कर मेकअप उतारते हुए कुछ युवक दिखे. मुझे देख कर मुस्कुरा कर "गुड मार्निंग" करके अभिवादन किया. फिलीपीन्स में समलैंगिक और अंतरलैंगिक लोगों के लिए कानूनी स्वतंत्रता भी है और सामाजिक मान्यता भी. दो दिन पहले हमारी कौन्फ्रैन्स में भी देश के राष्ट्रपति के सामने, टीवी पर काम करने वाले एक प्रसिद्ध फिलीपीनी अभिनेता ने सहजता से अपने समलैंगिक होने की बात को कहा था. मैंने उनके अभिवादन का मुस्करा कर उत्तर दिया और पूछा कि क्या मैं उनकी तस्वीर ले सकता हूँ. लिपस्टिक और मेकअप लगाये एक युवक ने सिर हिला कर नहीं कहा, लेकिन उसके दो अन्य साथी जो हाथ मुँह धो कर वस्त्र बदल चुके थे, तुरंत मान गये.

Lapu Lapu monument, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

City life, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011


युवकों से विदा ले कर मैं ओर्किड फ़ूलों के बाग को देखने गया. हालाँकि अभी उस बाग के खुलने का समय नहीं हुआ था फ़िर भी जब मैंने बताया कि मेरे पास समय कम था और मुझे थोड़ी देर में हवाई अड्डा जाना था तो बाहर बैठे सिपाही ने मुझे बिना टिकट ही अन्दर जाने दिया. बाग में ओर्किड के फ़ूल कुछ विषेश नहीं दिखे लेकिन जगह सुन्दर लगी.

Orchid garden, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

Orchid garden, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

Orchid garden, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011


इसी बाग के बाहर दक्षिण कोरिया और फिलीपीनी सैनिकों की जापानी सैना से लड़ाई से जुड़े कुछ स्मारक बने हैं.

Philippine-Korea memorial, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

Philippine-Korea memorial, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011


बाग से थोड़ी दूर एक कृत्रिम झील में संगीतमय फुव्वारों का कार्यक्रम चल रहा था, जिसमें रात की रंगबिरंगी बत्तियाँ आदि नहीं थीं लेकिन सुन्दर लग रहा था. झील के किनारे स्पेनी साम्राज्य के विरुद्ध लड़ने वाली स्वतंत्रता सैनानियों की मूर्तियों की कतार लगी थी.

Musical fountain, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

Musical fountain, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

Musical fountain, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

Martyrs statues, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011


झील के पास संगीतमय फुव्वारे के संगीत की ताल पर चीनी ताई छी व्यायाम करने वाले लोग दिखे. ताई छी की धीमी धीमी बदलती मुद्रायें नृत्य जैसी लगती हैं. अन्य लोगों के साथ मिल कर सुबह सुबह ताई छी का व्यायाम करना चीन में भी बहुत शहरों में देखा था.

Tai chi, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

Tai chi, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011


तब तक सूरज निकला आया था और गर्मी भी बढ़ने लगी थी. मैंने घड़ी देखी सात बज चुके थे. मैं वापस होटल की ओर मुड़ा. झील के किनारे बने जापानी और चीनी बागों को देखने का मेरे पास समय नहीं था, लेकिन होटल वापस आते समय मैं केवल एक अन्य छोटे से कृत्रिम तालाब में बने फिलीपीन्स के नक्शे को देखने के लिए रुका.

Philippines relief map, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011


वापस होटल पहुँचा तो बस जल्दी से नाशता करके सामान उठाने का समय बचा था. हवाई अड्डा जाने की प्रतीक्षा में कुछ साथी तैयार खड़े थे. थोड़ी देर को ही सही, कम से कम मनीला शहर के एक छोटे से भाग को देखने में सफ़ल हुआ था.

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